________________
अद्वेष का क्षण । हमारे जीवन के ऐसे क्षण बीते जिनमें न राग हो और न द्वेष हो, वीतरागता का क्षण हो । यह वीतरागता का क्षण ही वास्तव में समता है । जब वीतरागभाव होगा तब सब प्राणियों के प्रति, सब जीवों के प्रति अपने-आप समता का भाव होगा । उसमें विषमता रहेगी ही नहीं। किसी भी पदार्थ के प्रति, चाहे फिर वह चेतन हो या अचेतन उच्चावचभाव समाप्त हो जाता है । न घृणा हो सकती है, न अहंकार हो सकता है, न बड़प्पन का भाव हो सकता है । कुछ भी नहीं हो सकता वीतरागता के क्षण में ।
एक-एक कर वहां से हटने
आचरण सबसे बड़ा है जो समतापूर्ण हो । समता ही महान् आचरण है । जिस आचरण में समता नहीं है अर्थात् तटस्थता नहीं है, मध्यस्थता नहीं है, निष्पक्षता नहीं है, राग-द्वेष की प्रचुरता है, वह महान् आचरण नहीं हो सकता । वह सामान्य होगा, सामान्य व्यक्ति का आचरण होगा। महान् आचरण वही होगा जो पूर्ण तटस्थ, मध्यस्थभाव से परिपूर्ण और राग-द्वेष की परिणतियों से शून्य है । उसका न इधर झुकाव है और न उधर झुकाव है। दोनों पलड़े सम हैं । यह है समता का आचरण । जब समता का आचरण होता है तब विजातीय तत्त्व उखड़ने लगते हैं। जो तत्त्व विषमता के कारण बद्धमूल हो रहे थे, उनकी जड़ें हिल उठती हैं, उनकी सत्ता खिसकने लगती है । वे लगते हैं | भरा हुआ खजाना खाली होने लगता है। एक ओर से यह रिक्त करने SIT कार्य चलता है तब दूसरी ओर से यह कार्य भी आवश्यक हो जाता है कि रिक्त स्थान में नये सदस्य आकर न बैठ जायें। जो रिक्त हुआ है, बड़े कड़े परिश्रम से जो खाली हुआ है, वह फिर भर न जाये । पुराने जा रहे हैं, नये न आ जायें । हमारे चारित्र का निर्माण समता के तत्त्वों से हुआ । भरा हुआ रिक्त होने लगा । अब हमने सीमाओं की घेराबंदी करनी प्रारंभ की, अपना संयम करना प्रारंभ किया । मन को रोका, इंद्रियों को रोका, शरीर और वाणी की चंचलता को भी शेका । ज़बरदस्त घेराबंदी की, संयम किया। अब नये अंदर नहीं आ सकते । पुराने भागते गए, भागते गए। इस स्थिति में हमारा संयम सधा, हमारा चारित्र बना और संवर निष्पन्न हो गया । यह संवर की प्रक्रिया है ।
तत्त्व की व्याख्यामात्र से संवर नहीं होता । वह होता है साधना के द्वारा । वह होता है अभ्यास के द्वारा। आप जानते जाएं, रटते जाएं कि कर्म की अमुक प्रकृतियों के क्षयोपशम के द्वारा संवर हो जायेगा, कभी संवर नहीं होगा । संवर तब होगा जब प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान तथा संयम और चारित्र – ये चारों तत्त्व हमारी साधना के अंग बनेंगे । जब संवर होता है तब मूर्च्छा का सघन वलय अपने आप टूटने लगता है और एक दिन पूर्ण जागरण की स्थिति उपलब्ध हो जाती है । उस अवस्था में केवल जागरण ही जागरण रहता है।
कर्मशास्त्र को व्याख्यायित करने का, विवेचित करने का और उसे समझने
कर्मवाद के अंकुश : १६१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org