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सकता है जिससे जागृति का कोई बिंदु स्फुटित हो जाये, कोई प्रकाश की किरण फूट जाये। मूर्छा और जागृति-दोनों एक-दूसरे के विरोधी हैं। मूर्छा जागृति नहीं है और जागृति मूर्छा नहीं है।
अध्यात्म-शास्त्र का सूत्र है-जागृति और कर्म-शास्त्र का सूत्र है-मूर्छा। मूर्छा को तोड़ना और जागृत होना-ये दो बातें हमारे सामने हैं। जैसे-जैसे मूर्छा टूटती है वैसे-वैसे जागति बढ़ती है। मूर्छा आस्रव है और जागृति संवर है। एक आस्रव है। वह उसे लाती है जो नहीं चाहिए। आस्रव द्वार है। इससे सब-कुछ आता है। वह आता है जो वांछनीय नहीं है, जिसकी कोई अपेक्षा नहीं है। किंतु द्वार खुला है इसलिए आ रहा है। उसे रोका नहीं जा सकता। संवर का अर्थ है-द्वार का बंद हो जाना। आस्रव है-राग-द्वेषात्मक परिणति। जीव का जो राग-द्वेषात्मक परिणाम होता है, वह आस्रव बन जाता है। जब चैतन्य का अनुभव जागृत होता है वह स्वयं संवर बन जाता है । संवर है चैतन्य का अनुभव।
मूर्छा एक बिंदु है तमोमय, अंधकारमय । जब मूर्छा सघन होती है तब जागृति अंधकारमय हो जाती है । वह बिंदु लुप्त हो जाता है । जब जागृति का बिंदु उभरता है, थोड़ा-सा प्रकाश आता है तब मूर्छा का सघन बिंदु धुंधलाने लगता है। राग-द्वेष की तीव्र ग्रंथि का भेद होता है। यह पहली बार होता है अपूर्वकरण के द्वारा। अपूर्वकरण अर्थात् चित्त की ऐसी निर्मलता जो पहले कभी प्राप्त नहीं हुई थी । जो पहले कभी प्राप्त नहीं होता वह अपूर्व होता है। जो एक बार प्राप्त हो गया वह अपूर्व नहीं होता। जो घटना पहली बार घटित होती है, वह अपूर्व होती है। यहां राग-द्वेष की गांठ पहली बार टूटने लगती है। जागृति का एक बिंदु उभरता है। जो सघनतम अंधकार था वह टूटता है। जैसे-जैसे हमारे चैतन्य का अनुभव आगे बढ़ता है, प्रकाश फैलता है, वैसे-वैसे मूर्छा का बिंदु कमज़ोर होता जाता है। जब चैतन्य का अनुभव स्पष्ट होता है तब सम्यक्त्व संवर बन जाता है। चैतन्य का अनुभव और स्पष्ट होता है तब आकांक्षाएं समाप्त होने लगती हैं। अमिट प्यास भी बुझने लगती है, तब व्रत संवर होता है । चैतन्य का अनुभव और अधिक स्पष्ट होता है तब प्रमाद समाप्त होने लगता है, अप्रमाद संवर की स्थिति निर्मित होने लगती है। चैतन्य का अनुभव और अधिक स्पष्ट होता है, कषाय भी समाप्त हो जाता है तब अकषाय संवर की स्थिति बनती है। पूर्ण प्रकाश की स्थिति, वीतरागता की स्थिति आ जाती है। राग-द्वेषात्मक परिणाम के द्वारा जो आस्रव हो रहा था, वह समाप्त हो जाता है और चैतन्य का पूर्ण अनुभव जागृत हो जाता है।
सैद्धांतिक भाषा में कहा जाता है कि मोह के उपशांत या क्षीण होने पर संवर होता है। पर संवर कैसे होता है ? उसकी प्रक्रिया क्या है ? इस पर हमें गहराई से विचार करना चाहिए। संवर साधना के द्वारा ही हो सकता है। साधना के
१८८ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण
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