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उष्णता-जन्य बीमारियां अधिक होती हैं। सारी घटनाओं में द्रव्य, क्षेत्र और काल का प्रभाव रहता है। सभी प्रदेशों के आदमियों को असातवेदनीय कर्म को भुगतना पड़ता है। प्रत्येक मनुष्य का भौगोलिक और द्रव्यगत कारण भिन्नभिन्न होता है। उसी के अनुसार कर्मों का विपाक भुगतना होता है। जहां भौगोलिक भिन्नता और द्रव्यगत भिन्नता आती है वहां असातवेदनीय कर्म के भोगने में भी भिन्नता आ जाती है। लू लगने की बीमारी यदि असातवेदनीय कर्म के कारण ही हो तो यह क्यों होता है कि राजस्थान के आदमी को ही लू लगे और मद्रास वाले को न लगे । कर्म के क्षेत्र में यह पक्षपात नहीं होना चाहिए। फिर जैसे कुछ लोग ईश्वर पर पक्षपात का आरोप लगाते हैं कि ईश्वर ने एक को ऐसा बना दिया और एक को वैसा, वही पक्षपात का आरोप कर्म पर लगाया जायेगा। किन्तु यह पक्षपात नहीं है । यह अंतर आता है भौगोलिकता के कारण। जहां गर्मी का प्रकोप होता है तथा अन्यान्य कुछ कारण और मिलते हैं, वहां लू लगती है। जहां गर्मी नहीं है, अन्यान्य कारण नहीं हैं, वहां लू नहीं लगती। लू लगना या न लगना कर्म के अधीन नहीं है। किन्तु लू लगती है, इसके कारण असातवेदनीय कर्म का उदय हो जाता है। सर्दी में ब्रोंकाइटिस आदि बीमारियां होती हैं। उनके कारण असातवेदनीय कर्म का उदय होता है। ठंडे देश का आदमी गोरा होगा, उष्ण देश का आदमी काला और कुछ देशों के आदमी उजलें होंगे। गोरा होना, काला होना, और उजला होना-यह नामकर्म के कारण नहीं है किन्तु इसमें भौगोलिकता और प्रादेशिकता का निमित्त है।
बहत सारी घटनाएं ऐसी हैं जिनके कारण कर्म का विपाक होता है किन्तु कर्म के विपाक के कारण ये घटनाएं घटित नहीं होती।
दी शब्द हैं-कर्म और नो-कर्म । नो-कर्म वह है जो कर्म तो नहीं है किन्तु कर्म का सहायक है। भौगोलिकता वातावरण, पर्यावरण, परिस्थितियां-ये सारे नो-कर्म हैं । ये कर्म नहीं, कर्म के उदय में सहायक तत्त्व हैं।
हम यह तथ्य हृदयंगम कर लें कि प्रत्येक घटना कर्म से ही घटित नहीं होती। इसलिए हम पूर्णरूप से परतंत्र नहीं हैं। यदि प्रत्येक क्रिया कर्म से ही घटित होती-विमान की दुर्घटना हो वह भी कर्म से, दो मोटरों की टकराहट हो वह भी कर्म से, अतृप्ति हो वह भी कर्म से, सारे प्राकृतिक प्रकोप हों वे भी कर्म सेयदि ऐसा होता है तो कर्म का वैसा ही साम्राज्य हो जायेगा जैसा ईश्वर का साम्राज्य माना जाता है। उसका भी सर्व-शक्तिसंपन्न साम्राज्य हो जायेगा। कर्म ही सब कुछ हो जायेगा। फिर हम चाहे ईश्वर को माने या कर्म को-कोई अंतर नहीं होगा। केवल नाम का अंतर होगा। किन्हीं लोगों ने सर्व-शक्ति-संपन्न सत्ता को ईश्वर कह दिया और किन्हीं ने सर्व-शक्ति-संपन्न सत्ता को कर्म कह दिया । सर्व-शक्तिसंपन्न सत्ता में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। कर्म सर्व-शक्ति-संपन्न सत्ता नहीं है।
स्वतंत्र या परतंत्र ? : १८५
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