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सदा प्रवाहित रहती है। हम शरीर, कर्म और राग-द्वेष से बंधे हुए हैं, इसलिए हमारी परतंत्रता की धारा भी सतत प्रवाहित रहती है। हमारा व्यक्तित्व स्वतंत्रता
और परतंत्रता का संगम है। उसे किसी एक ही पक्ष में नहीं बांटा जा सकता। उसे निखालिस सोना नहीं बनाया जा सकता। सूर्य कितना ही प्रकाशवान् हो किन्तु दिन और रात का भेद नहीं मिटाया जा सकता। कितने ही बादल छा जाएं, अंधकार छा जाये, वे सब सूर्य को ढंक दें, पर दिन दिन रहेगा और रात रात। दिन और रात का भेद समाप्त नहीं किया जा सकता । स्वतंत्रता चलती है तो परतंत्रता भी चलेगी। परतंत्रता चलती है तो स्वतंत्रता भी चलेगी। स्वतंत्रता का घटक है-शुद्ध चतन्य और परतंत्रता का घटक है-राग-द्वेषयुक्त चैतन्य ।
प्रश्न होता है कि क्या जो कुछ भी घटित होता है वह सब कर्म से नियंत्रित ही है ? उसी का परिणाममात्र है ? यदि ऐसा है तो फिर किसी को दोष नहीं दिया जा सकता। कोई झूठ बोलता है, कोई चोरी करता है, कोई डाका डालता है, तो यह सब करने वाले का दोष नहीं है, क्योंकि यह सब पूर्ववर्ती कर्म का परिणाम है। इसमें किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। किसी पर चोट की और उसे यह समझाया कि भाई ! यह तुम्हारे पूर्वाजित कर्म का ही परिणाम है, कर्म का ही योग है-ऐसा कहकर चोट करने वाला बच सकता है । वह दोषी नहीं हो सकता। पूर्ववर्ती कर्म ही तो उससे ये सारी क्रियाएं करवा रहे हैं तो फिर वह क्या करे ? यह सारा भ्रम है। हर अपराधी अपने अपराध को छिपाने का प्रयत्न करता है, उससे बच निकलने का प्रयास करता है। वह अपने आपको निर्दोष मानता है। वह कह सकता है-मैंने कुछ भी नहीं किया । सब कुछ कर्म करवाता है। जैसा कर्म है वैसा करना ही पड़ता है।
यह धारणा सही नहीं है कि जो कुछ घटित होता है वह सब कर्म से ही होता है। व्यक्ति की अपनी स्वतंत्र सत्ता भी है । ऐसी अनेक घटनाएं घटित होती हैं जो पहले के कर्मों से नियंत्रित नहीं होती।
स्थानांग सूत्र में रोग की उत्पत्ति के नौ कारण बतलाए हैं१. निरंतर बैठे रहना। २. अहितकर भोजन करना । अति भोजन करना । ३. अति निद्रा। ४. अति जागरण। ५. मल का निरोध करना। ६. प्रस्रवण का निरोध करना । ७. पंथगमन। ८. भोजन, की प्रतिकूलता। ६. कामविकार।
१८२ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण
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