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________________ सब मिलकर भी उपादान को उत्पन्न नहीं कर सकते । उपादान को उत्पन्न करने की शक्ति किसी में नहीं है। उपादान वही होता है जो द्रव्य का घटक होता है। कर्म में यह शक्ति नहीं है कि वह आत्मा के उपादानभूत स्वभावों को पैदा कर सके। कर्म में यह शक्ति नहीं है कि वह आत्मा में ज्ञान के पर्यायों को उत्पन्न कर सके, चैतन्य के पर्यायों को उत्पन्न कर सके, आनन्द के पर्यायों को उत्पन्न कर सके, शक्ति के पर्यायों को उत्पन्न कर सके। कर्म यह कभी नहीं कर सकते, क्योंकि ये सब कर्म के स्व-भाव नहीं हैं। चैतन्य, आनन्द और शक्ति-ये आत्मा के उपादान हैं। इसलिए आत्मा ही उनका घटक है। आत्मा में ही यह शक्ति है कि वह अपने पर्यायों को उत्पन्न कर सकता है। वह अपने इन सब पर्यायों को उत्पन्न कर सकता है इसीलिए उसका स्वतंत्र कर्तत्व है, अबाधित कर्त त्व है। यह हमारे स्वतंत्र कर्तत्व का पक्ष है। एक दूसरा पक्ष और है । आत्मा के साथ राग-द्वेष का परिणाम जुड़ा हुआ है। राग-द्वेष की धारा प्रवाहित है, इसलिए आत्मा के साथ परमाणुओं का संयोग होता है। वे परमाणु जुड़ते हैं, आत्मा को प्रभावित करते हैं। वे आत्मा के कार्य को प्रभावित करते हैं, आत्मा के कर्तृत्व को प्रभावित करते हैं । यह इसलिए होता है कि आत्मा के साथ शरीर का योग है । प्रभाव का आदि-बिन्दु है-शरीर । हमारी परतंत्रता का आदि-बिन्दु है-शरीर। आत्मा के साथ शरीर है, इसलिए हम परतंत्र हैं। हम स्वतंत्र कहां हैं ? शरीर है इसलिए भोजन चाहिए। आत्मा को कभी भोजन की आवश्यकता ही नहीं है । उसे कभी भूख नहीं लगती। चैतन्य को कभी भूख नहीं लगती। भूख लगती है पुद्गल को, शरीर को। शरीर है इसलिए भूख है, भूख है इसलिए भोजन है। भूख है इसलिए प्रवृत्ति का चक्र चलता है। यदि भूख न हो तो आदमी की सारी प्रवृत्तियां सिमट जायें। एक भूख है, इसलिए आदमी को बहुत कुछ करना पड़ता है-व्यवसाय करना पड़ता है, धंधा करना पड़ता है, नौकरी करनी पड़ती है, न जाने क्या-क्या करना पड़ता है। आदमी रोटी के लिए, पेट की आग को बुझाने के लिए बहुत कुछ करता है, सब कुछ करता है। __ शरीर है, इसलिए काम-वासना है। शरीर का सारा चक्र काम के द्वारा संचालित है। एक प्राणी दूसरे प्राणी को पैदा करता है । यह पैदा करने वाली शक्ति है-काम । आहार की वृत्ति है, काम-वासना की वृत्ति है, यह हमारी परतंत्रता है। इन सारी परतंत्रताओं में राग-द्वेष का चक्र चल रहा है। शुद्ध चैतन्य है, इसलिए हम स्वतंत्र हैं। राग-द्वेष-युक्त चैतन्य है, इसलिए हम परतंत्र हैं। दो पक्ष हैं । एक पक्ष है-स्वतंत्रता का और दूसरा पक्ष है-परतंत्रता का । चैतन्य की ज्योति सर्वथा लुप्त नहीं होती, इसलिए हमारी स्वतंत्रता की धारा भी स्वतंत्र या परतंत्र ? : १८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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