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________________ अनुकूल को प्राप्त करने की चाह और प्रतिकूल को समाप्त करने की चाह । सुखसुविधा को पाने की चाह और कष्ट को मिटाने की चाह । यह जो विभिन्न प्रकार की आन्तरिक चाह है, आकांक्षा है, इसे मनोविज्ञान की भाषा में 'अदस् मन' कहाँ गया है। कर्मशास्त्र की भाषा में यह अविरति आस्रव है। अविरति का अर्थ हैविरति का अभाव । अभी तक चाह मिटी नहीं है। प्यास बुझी नहीं है। अतृप्ति है, अतप्ति है। कंठ अभी तक सखा ही सूखा है। कितना ही पानी पी लिया, पर अभी तक कंठ सूखे हैं। प्यास बुझी नहीं। सारे संसार का पानी पी लिया, पर प्यास बुझी नहीं। यह अमिट चाह ! अमिट चाह का जो स्रोत है, उसे अविरति आस्रव कहा गया है । इसकी मात्रा जितनी अधिक होगी, चंचलता अधिक बढ़ेगी। चंचलता यदि स्वाभाविक होती तो सब प्राणियों में समान होती। कुछ लोग बरामदे में बैठे हैं। सड़क पर बाजे बजते हैं। कुछ खड़े होकर सड़क पर देखने लग जाएंगे, कुछ शांत बैठे रहेंगे। यह अन्तर क्यों ? जिनमें अविरति प्रबल है, चाह प्रबल है, उत्सुकता प्रबल है, वे देखने को दौड़ेंगे, भागेंगे, प्रयत्न करेंगे, सुनना चाहेंगे। जिनमें अविरति कम है, चाह कम है, उत्सुकता कम है, वे अपने आप में शांत बैठे रहेंगे। अन्तर्वत्ति होकर बैठे रहेंगे। वे बहित्ति नहीं रहेंगे। वे बाहर नहीं भागेंगे। यह आकर्षण का कम होना सहजभाव से अन्तर्वृत्ति होना है। मानसशास्त्र में दो प्रकार की वृत्तियों का उल्लेख है-अन्तर्वत्ति और बहिर्वत्ति । कामशक्ति जब आगे की ओर बढ़ती है, व्यक्ति बहिर्वत्ति हो जाता है, बाहर की ओर दौड़ने लग जाता है। जब कामशक्ति की प्रत्यावृत्ति होती है, डिप्रेशन होता है तो व्यक्ति भीतर में सिमट जाता है। उसकी बाहरी वृत्तियां समाप्त हो जाती हैं। ठीक हम इसी कर्मशास्त्रीय भाषा का प्रयोग करें कि अविरति जब तीव्र होती है तब पुरुष बाहर की ओर भागता है। उसकी आकांक्षा इतनी बढ़ जाती है कि वह सारे संसार को अपनी मुट्ठी में बंद करने का प्रयत्न करता है और सब कुछ बाहर ही बाहर देखता है । उसे सब कुछ बाहर ही बाहर दीखता है। जब यह अविरति कम होती है, व्यक्ति अपने भीतर सिमटना शुरू हो जाता है । जब भीतर सिमटना शुरू होता है तो आकांक्षाएं कम होती हैं, चंचलता अपने आप कम हो जाती है। एक संस्कृत कवि ने कहा है आशा नाम मनुष्याणां, काचिदाश्चर्यशृंखला। यया बद्धाः प्रधावन्ति, मुक्तास्तिष्ठन्ति पङ्ग वत् ॥ आशा नाम की एक सांकल है। यह अद्भुत सांकल है। लोहे की सांकल से आदमी को बांध दो, वह चल नहीं पायेगा। सांकल को खोल दो, वह चलने लग जायेगा। किन्तु आशारूपी सांकल से आदमी को बांध दो, वह दौड़ने लग जायेगा। कर्म का बन्ध : १३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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