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३. अधिशास्ता (Super Ego) मन ।
पहला विभाग है 'अदस्' मन। इस विभाग में आकांक्षाएं पैदा होती हैं। जितनी प्रवृत्त्यात्मक आकांक्षाएं और इच्छाएं हैं, वे सब इस मन में पैदा होती हैं। इस में अचेतन का भाग अधिक है, चेतन का भाग कम ।
दूसरा विभाग है 'अहं' मन । समाज-व्यवस्था से जो नियंत्रण प्राप्त होता है, उससे आकांक्षाएं यहां नियंत्रित हो जाती हैं, और वे कुछ परिमार्जित हो जाती हैं। उन पर अंकुश जैसा लग जाता है। मन में जो आकांक्षा या इच्छा पैदा हुई, अहं मन' उसे क्रियान्वित नहीं करता।
तीसरा विभाग है 'अधिशास्ता' मन। यह अहं पर भी अंकुश रखता है और उसे नियंत्रित करता है।
चंचलता अपने आप नहीं होती। चंचलता के पीछे कोई-न-कोई आकांक्षा होती है। हम अपने आप नहीं बोलते। बोलने की ज़रूरत होती है, आकांक्षा उत्पन्न होती है, कोई विकल्प पैदा होता है, तब हम बोलते हैं। मैं कई बार मौन करने के विषय में सोचता हूं। यह देखकर मुझे अजीब-सा लगता है कि आदमी मौन करता है और प्रवृत्ति इतनी करता है कि शायद बोलने वाला भी नहीं करता या बोलते हुए भी नहीं करता । बड़ा विचित्र लगता है। वाणी का मौन है, किन्तु संकेतों से इतनी प्रवृत्ति कर देना कि शायद बोलने वाला भी न करे। यह मौन नहीं है। मौन का मतलब केवल नहीं बोलना ही नहीं है। उसका मतलब है कि बोलने की अपेक्षा कम हो जाये। जिससे हमें बोलने की प्रेरणा मिलती है, हम बोलने के लिए बाध्य होते हैं, उन अपेक्षाओं का कम हो जाना मौन है, न कि वाणी का प्रयोग बंद कर समूचे शरीर को हिला देना, संकेतों से प्रवृत्ति करना, मौन है।
कुछ लोग मौन भी कर लेते हैं और 'ऊं ' आदि अव्यक्त ध्वनि से अपना काम भी निकाल लेते हैं। यह कैसा मौन ? ___ आकांक्षा का कम होना, प्रयोजन का कम होना, इच्छाओं का कम होना, अपेक्षाओं का कम होना चंचलता का अपने आप कम होना है। चंचलता अपने आप नहीं होती। घूमने वाली चीज़ अपने आप नहीं घूमती। उसे घुमाने वाला दूसरा कोई-न-कोई होता है । चक्का घूमता है, चाहे हवा से, चाहे बिजली से और चाहे और किसी साधन से । वह अपने आप नहीं घूमता। किसी प्रेरणा से घूमता है। चंचलता अपने आप नहीं होती। चंचलता की तह में कुछ और होता है।
पारिभाषिक शब्दावली में चंचलता को योग कहा जाता है । यह योग आस्रव है। योग आस्रव अपने आप प्रवृत्त नहीं होता, उसके पीछे कोई अपेक्षा होती है। वह अपेक्षा है-अविरति । अविरति अर्थात् छिपी हुई चाह । वह छिपी हुई ज्वाला है, आग है । आग भभक रही है। चाह है। सुख को पाने की चाह और दुःख को मिटाने की चाह । प्रिय को पाने की चाह और अप्रिय को मिटाने की चाह ।
१३८ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण
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