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________________ की क्षमता पैदा कर रहा है, जो हमारे विचारों को प्रभावित कर रहा है, उसे हम क्षीण कर दें। उस धारा को मोड़ दें। उसे उपशांत कर दें। इस उदात्तीकरण की प्रक्रिया के द्वारा हम उस बिन्दु पर पहुंच जाएं जहां प्रवृत्ति तो है किन्तु उसके सारे दोष समाप्त हैं। जो दोष उसके साथ जुड़ते थे, वह धारा समाप्त है। यह है साधना की सार्थकता। कर्मों में जो फलदान की शक्ति है उसे कम करने के लिए साधना की जाती है। उसके अभ्यास से एक मार्ग मिल जाता है। वह साधना की समाप्ति नहीं है, प्रारंभ है। इस यात्रा का प्रारंभ करने वाला जो भी प्रवृत्ति करता है वह पहले जैसी प्रवृत्ति नहीं रहती। अब उस प्रवृत्ति के साथ आसक्ति का, राग-द्वेष का वह प्रवाह नहीं जुड़ता जो पहले जड़ता था। या तो उसका मार्ग बदल जायेगा या वह सर्वथा निरुद्ध हो जायेगा। यदि हम इस तथ्य को ठीक समझ लें तो कर्म के फलदान की शक्ति को भी समझ लेंगे। साधना की सार्थकता को भी समझ लेंगे। कर्म में जो फलदान की शक्ति है, वह स्वाभाविक है, स्वयं की व्यवस्थागत है। इसमें किसी दूसरे का हस्तक्षेप नहीं है। किसी व्यवस्थापक की अपेक्षा नहीं है। यह स्वतः संचालित व्यवस्था है। इसमें कोई विचार की आवश्यकता नहीं है कि फल कैसे देना है। एक आदमी घृणा करता है, ईर्ष्या करता है, असहिष्णुता का बर्ताव करता है । उसको क्या फल देना है, किसी को सोचने की ज़रूरत नहीं है। आज का मनोविज्ञान कहता है कि कोई बुरी बात सोचता है तो उसके अल्सर हो जाता है। ईर्ष्या, घणा आदि से अनेक बीमारियां होती हैं। कैंसर भी हो जाता है। जो मानसिक बीमारियां हैं, उनका संबंध हमारे स्नायु-संस्थान से हैं, वे पैदा हो जाती हैं। उनका संबंध हमारी मानसिक क्रिया से है। कोई व्यवस्थापक नहीं है, व्यवस्था करने वाला नहीं है । जैसे ही एक हुआ, दूसरा हो जायेगा। दोनों का संबंध है। फल देने के लिए किसी नियंता की आवश्यकता नहीं। उसमें अपने आप में क्षमता है। हम उस क्षमता को समझे। हम आसक्ति के द्वारा, राग-द्वेष के द्वारा, कषायों के द्वारा उन कर्म-परमाणुओं में ऐसी संरचना न होने दें, ऐसी फलशक्ति उत्पन्न न होने दें जिसका परिणाम बुरा हो, जो हमें ही भोगना पड़े। १३२ : चेतना का ऊर्वारोहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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