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और सत्य को पकड़ सकते हैं। केवल वर्तमान के द्वारा नहीं पकड़ सकते।
साधना का एक सूत्र है-वर्तमान में रहो, वर्तमान में रहो । वर्तमान में रहना सीखो। बहुत सुन्दर बात है साधना की दृष्टि से । साधना की दृष्टि से वर्तमान में रहना यानी भावक्रिया करना, जिस समय जो काम कर रहे हैं, उसी में रहना, न अतीत में जाना, न स्मृति में जाना और न भविष्य में जाना, न कल्पना में जाना। कल्पना की उड़ान भी नहीं करना है और स्मृति के समुद्र में गोते भी नहीं लगाना है। किन्तु वर्तमान के बिन्दु पर खड़े रहना है, स्थित रहना है। साधना की दृष्टि से बहुत अच्छा है वर्तमान में रहना। हम अतीत के पंख को भी तोड़ डालें और भविष्य के पंख को भी तोड़ डालें। दोनों पंखों को तोड़ डालें। केवल वर्तमान में
किन्तु जहां कार्य-कारण की मीमांसा है, जहां सचाई को उद्घाटित करने का प्रश्न है वहां केवल वर्तमान से काम नहीं चल सकता। वहां अतीत का भी उतना ही महत्त्व है जितना कि वर्तमान का है। वहां भविष्य भी उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है जितना वर्तमान महत्त्वपूर्ण है। काल की अखंडता को लेकर ही हम कार्य, कारण, प्रवृत्ति और परिणाम को जान सकते हैं। काल की अखंडता के द्वारा ही हम उन्हें ठीक से समझ सकते हैं, पकड़ सकते हैं। ___ कर्म का संबंध अतीत से इसलिए है कि वह दीर्घकाल तक आत्मा के साथ जुड़ा रहता है । वह संबंध स्थापित करता है और संबंध स्थापित करने के बाद लंबे समय तक जुड़ा रहता है । कर्म का संबंध वर्तमान से इसलिए है कि वह लंबे समय तक साथ रहने के बाद एक दिन विजित हो जाता है, सदा साथ नहीं रहता। जो आगन्तुक होता है, वह सदा साथ नहीं रहता। सदा वही रह सकता है जो स्थायी है । स्थायी वही रह सकता है जो सहज होता है। जो आया हुआ है, वह सहज नहीं होता। कर्म सहज नहीं होता, वह स्वभाव नहीं है । सहज है चेतना। सहज है आनन्द । सहज है शक्ति। आत्मा का जो स्वाभाविक गुण है, वह है चैतन्य । कर्म आया हुआ है, सहज नहीं है । वह एक दिन आता है । संबंध स्थापित करता है और जब तक अपना प्रभाव पूरा नहीं डाल देता तब तक बना रहता है। जिस दिन अपना प्रभाव डाल दिया, उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है और वह चला जाता है, विसर्जित हो जाता है । विसर्जित होने का क्षण वर्तमान का क्षण है और आने का क्षण अतीत का क्षण है। विनाश का क्षण वर्तमान का क्षण है और संबंध-स्थापना का क्षण अतीत का क्षण है । इन दोनों क्षणों की हम ठीक व्याख्या करेंतो कर्म का पूरा सिद्धांत हमारी समझ में आ सकेगा। इन दोनों की लंबाई में हमें कर्म की यात्रा करनी है।
११२ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण
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