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________________ जब हमारा चित्त वीतरागता की ओर होता है तब वीतराग के सारे घटक तत्त्व हमारे जीवन में आते हैं और वीतरागता की परिणति प्रारंभ हो जाती है। यदि हमारे चित्त में वासना का विचार अधिक रहा तो परिणमन का एक चक्र बन जायेगा, क्रोध का विचार अधिक रहा तो क्रोध के परिणमन का एक चक्र बन जायेगा, वलय बन जायेगा। हमारे शरीर में ऐसे बड़े वलय हैं जो वास्तव में हमारी चित्तवृत्तियों को संचालित करते हैं। यदि वीतरागता की भावना रही तो वीतरागता का वलय बन जायेगा, चक्र बन जायेगा । यह है वीतरागता को अपने भीतर उतारना, स्थापित करना और वीतरागता का आना। संज्ञा-मुक्ति के ये कुछेक उपाय हैं । इनके साथ-साथ हमें विस्तार से और कुछ जान लेना होता है । वृत्तियों के केन्द्र मस्तिष्क में कहां हैं उन्हें खोजना, उभरती हुई वृत्तियों को देखना, उनका साक्षात् करना, उनके प्रति जागरूक रहना और उन वृत्तियों को किस प्रकार से विफल किया जा सकता है-इन सारी बातों को यदि हम जान लेते हैं तो असंभव नहीं कि वृत्तियां न टूटें। आदमी बदलता है, संज्ञाओं को तोड़ता है और उन्हें परास्त कर देता है। यदि यह नहीं होता तो साधना की बात व्यर्थ हो जाती। धर्म का कोई अर्थ ही नहीं होता। हमारे पुरुषार्थ की कोई सफलता नहीं होती। हम संज्ञाओं को तोड़ सकते हैं, वृत्तियों को बदल सकते हैं, इसीलिए हमारी साधना है, इसीलिए हम धर्म की आराधना करते हैं और इसीलिए हम ध्यान का प्रयोग करते हैं। ६० : चेतना का ऊर्ध्वारोहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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