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________________ कल्पना नहीं जोड़नी चाहिए। उस समय तो ऐसी कल्पना की जा सकती है कि पेट की खराबी बाहर निकल रही है। पेट का रोग दूर हो रहा है। किंतु जब विशिष्ट भावना का प्रवेश कराना हो, जिस भावना को मन में स्थिर करना हो, उसे रेचन के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। उसे पूरक के साथ जोड़ना चाहिए । चन्द्रस्वर से पूरक करते समय यह दृढ़ संकल्प और भावना करें कि हृदय में वीतराग का अवतरण हो रहा है । पूरक के बाद कुंभक करें। जितने समय तक सुगमता से, सरलता से, बिना कष्ट पाये श्वास को रोक सकें, उतने समय तक श्वास को रोककर अन्तर्मन में वीतराग का ध्यान करें। यह एक उपाय है || 'देवो भूत्वा देवं भजेत्'देवता होकर देवता की पूजा करनी चाहिए। हम स्वयं उस वीतरागता की स्थिति में होकर वीतराग का ध्यान करें। ऐसा करने पर ही हमारे चित्त की सारी वृत्तियां, चित्त की सारी ऊर्जा अपने परिणमन में लग जाती है। परिणमन होता रहता है, परिणति होती रहती है और हम उसी रूप में बदलते रहते हैं | जैसी हमारी बुद्धि होती है, जैसा हमारा चित्त होता है, जैसी हमारी धारणा होती है, वैसे ही हम बदलते रहते हैं । जैन दर्शन में पांच भाव प्रतिपादित हैं १. औदयिकभाव २. औपशमिकभाव ३. क्षायिकभाव ४. क्षायोपशमिकभाव ५. पारिणामिकभाव प्रथम चार भावों में कर्म का योग होता है, कर्म का धागा जुड़ा हुआ होता है । परिणामिक भाव में कर्म का योग नहीं होता । वह हमारी पूरी स्वतंत्रता है । यदि हमारा पारिणामिक भाव पुष्ट होता है तो बहुत बार हम कर्म के विविध परिणामों को टाल सकते हैं। यह हमारी बहुत बड़ी स्वतंत्रता है कि हम कर्मों को बदल सकते हैं, उनमें परिवर्तन ला सकते हैं । एक ज्योतिषी ने सुकरात से कहा- मैं तुम्हारे ग्रहों के आधार पर तुम्हारे जीवन के बारे में भविष्यवाणी करूंगा।' सुकरात ने हंसते हुए कहा - 'क्या भविष्यवाणी करोगे ? कुंडली किसी ने लिखी है, पर मेरी कुंडली मेरे हाथ में है । मैंने स्वयं के पुरुषार्थ से न जाने कितनी कुंडलियां बना दीं। मैंने न जाने कितनी रेखाएं बदल दीं ! तुम क्या भविष्यवाणी करोगे ?' यह सचाई है परिणमन की। यदि हम परिणमन के प्रति जागरूक हैं तो हम बहुत सारी बातों को बदल सकते हैं और नयी-नयी परिणतियों को उत्पन्न कर सकते हैं । हम परिणामीभाव के द्वारा अकल्पित परिणामों को ला सकते हैं । ज्योतिषी कुंडली के आधार पर जिन तथ्यों की अभिव्यक्ति नहीं दे सकता उन तथ्यों को हम घटित कर सकते हैं । Jain Education International वृत्तियों का वर्तुल For Private & Personal Use Only : १६ www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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