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कैसे होता है गुणों का विकास ?
विशिष्टता का हेतु
शिष्य ने गुरु से विनम्र प्रार्थना की - 'गुरुदेव ! वह जीवन सफल होता है, जिसमें कुछ विशेषताएं होती हैं, जिसमें गुणों का विकास होता है । मैं भी सफल जीवन जीना चाहता हूं, विशेषताओं का उद्दीपन करना चाहता हूं, गुणों की सम्पदा से सम्पन्न होना चाहता हूं | आप मार्गदर्शन करें कि उसका रास्ता क्या है ?'
'वत्स ! क्या सचमुच ऐसा चाहता है ?"
'हां, गुरुदेव !'
'वत्स ! यदि तू विशेषता को चाहता है, तो विशेषता में मन का नियोजन कर ।'
वैशिष्ट्यं यदि प्राप्तव्यं तद् वैशिष्ट्ये मनः कुरु । वैशिष्ट्यं वीक्ष्यमाणो हि, विशिष्टो जायते नरः ॥
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अपनी-अपनी दृष्टि
व्यक्ति में दोनों प्रकार की बातें मिलेंगी - अपूर्णता और पूर्णता, विशेषता और न्यूनता । खोजने पर एक भी ऐसा नहीं मिलेगा, जिसमें सौ में से सौ विशेषताएं हैं और एक भी ऐसा नहीं मिलेगा, जिसमें सौ में से सौ कमियां हैं । प्रश्न देखने वाले का है । एक आदमी दुर्योधन जैसा है, जिसे पूरी द्वारिका में एक भी विशेषता संपन्न आदमी नहीं मिला । एक दृष्टि है युधिष्ठिर की, जिसे पूरी द्वारिका में कोई बुरा आदमी नहीं मिला। वहां अच्छे-बुरे सब थे, पर दोनों का अपना-अपना दृष्टिकोण था । प्रत्येक व्यक्ति बुराई और अच्छाई का पूर्णता और अपूर्णता का, विशेषता और अल्पता का संगम है । कोई इसका अपवाद नहीं है । जिस व्यक्ति को कुछ बनना है, वह विशेषता को देखेगा । वह सोचेगा — इसमें यह विशेषता है, इसे मुझे लेना है, ऐसा मुझे बनना है ।
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प्रत्येक व्यक्ति गुरु है
दत्तात्रेय ने चौबीस गुरु बनाए । भगवान महावीर ने एक उपदेश दिया -- अगर तुम्हें कुछ सीखना है, तो पृथ्वी के समान बनो । यदि
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