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घड़ा जहर का ढक्कन अमृत का
के प्रति व्यक्ति स्वयं सचेत रहता है |
क्रोध और माया
इसका हम कषायों के आधार पर विश्लेषण करें। इस वर्गीकरण में माया और क्रोध का बहुत गहरा संबंध प्रतीत होता है । ये दो बातें मनुष्य के वर्गीकरण में प्रभाव डाल रही हैं । जहां अमृत का घड़ा है, जहर का ढक्कन है, वहां क्रोध की उत्तेजना ही परिलक्षित होती है । वहां इतना अनर्थ नहीं है पर तीसरा जो विकल्प है, वहां प्रभाव है माया का । माया सबसे ज्यादा व्यवधान पैदा करने वाली और खतरनाक है । वेदान्ती मानता हैजगत् मिथ्या । माया का नाम ही मिथ्या है । नया शब्द हो गया - मायामृषा । जब तक द्रव्य अपने केन्द्र बिन्दु में रहता है तब तक वह सत्य है । वह जितना पर्याय के जगत् में चला गया, उतना मिथ्या के जगत् में चला जाएगा। जितना जितना विस्तार में जाएगा, इसका होगा - प्रपंच | माया, प्रपंच और पर्याय - तीनों जुड़े हुए हैं । व्यक्ति जितना प्रपंच में जाएगा, उतना दूसरों के लिए समस्या बनता चला जाएगा ।
अर्थ
अमृत : दो अर्थ
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सबसे सरल बिन्दु है ऋजुता । प्रस्तुत संदर्भ में अमृत का एक अर्थ है ऋजुता और दूसरा अर्थ है क्रोध का उपशमन । कषाय को प्रभावित करने वाले भी दो तत्त्व प्रस्तुत हैं- क्रोध और माया । जहां क्रोध का उपशमन है वहां घड़ा अमृत का होगा। जहां माया का उपशमन है, वहां घड़ा अमृत का होगा | जहां कोध का उपशमन है पर थोड़ी-बहुत उत्तेजना भी है तो ढक्कन जहर का बन जाएगा। जहां भीतर में माया है, वहां घड़ा जहर का बन गया । क्रोध का उपशमन है, वाणी भी प्रबल नहीं है, वहां ढक्कन अमृत का बन जाएगा। जहां माया भी प्रबल है और वाणी भी प्रबल है, वहां जहर का घड़ा और जहर का ढक्कन हो जाएगा ।
साधना : ऋजुता पर आधारित
इस सूत्र से हम एक बोधपाठ ले सकते हैं - एक साधक व्यक्ति को क्रोध और माया पर इतना नियंत्रण रखना चाहिए, जिससे घड़ा जहर का न बने । महावीर की साधना सत्य पर आधारित है । इसका मतलब है -- वह ऋजुता पर आधारित है । महावीर ने ऋजुता पर सारे धर्म को केन्द्रित किया है । जहां ऋजुता नहीं आई, वहां वास्तव में धर्म नहीं आया । स्थान-स्थान पर ऋजुता की बात कही गई, क्रोध के उपशमन की बात कही गई । ये दोनों बातें हमारी साधना में आए और कषाय पर नियंत्रण हो, तो परीक्ष्यभाषी की स्थिति बनेगी | परीक्ष्यभाषी वह है, जिसकी इन्द्रियां समाहित हैं, कषाय
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