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मंजिल के पड़ाव
भयभीत हो गया। भय से उसने विष्ठा कर दी । स्वर्ण यव निकल आए । स्वर्णकार उन्हें देख विस्मित रह गया। स्वर्णकार तत्काल मुनि के पास आया । असह्य वेदना को समभाव से सहते-सहते मुनि का प्राणान्त हो चुका था । स्वर्णकार ने देखा। उसका मन पश्चात्ताप से भर उठा । लेकिन अब क्या हो सकता था? मुनि ने अहिंसा की आराधना के लिए अपने शरीर का बलिदान कर दिया। मौन का विवेक
यह है अहिंसक की मर्यादा, आत्मरक्षक की मर्यादा । यह मौन : विवेक है-किस प्रसंग में अहिंसक को मौन रहना चाहिए । अनेक बार ऐर समस्याएं आती हैं । मुनि जंगल में जा रहे थे। चोर चोरी करके आया पुलिस और नागरिक पीछे आ रहे थे। उन्होंने पूछा-महाराज ! चो किधर गया ? इस स्थिति में मुनि क्या करे ? कुछ ग्रन्थों में उल्लेख हैचोर का पता बता देना चाहिए। पर आचारांग में बताया गया है-'व जानता है तो भी कह दे-मैं नहीं जानता कि वह किधर गया है।' इसक समीक्षा करते हुए जयाचार्य ने लिखा-कितना बड़ा झूठ ! अगर ए अहिंसक झूठ का सहारा लेगा, सत्याग्रही नहीं होगा तो सत्य औ अहिंसा को तोड़ने में फर्क क्या रह जायेगा? अन्य सारे व्रत तो अहिंस के तालाब के सेतु हैं । अगर सेतु को तोड़ दिया तो तालाब कैसे बचेगा ? ज यह जानता है कि शिकारी का शिकार किधर गया है ? और यह कहेनहीं जानता। इस स्थिति में अहिंसा का व्रत तो अपने आप टूट गया जयाचार्य ने लिखा-'जाणं इति णो वदेज्जा'-इसका साफ-साफ प्रयोजन है कि अहिंसा करने के लिए अगर सत्य को तोड़ दिया तो सत्याग्रही कह रहा ? निष्कर्ष की भाषा
__ आत्मरक्षा का प्रश्न अहिंसा से जुड़ा हुआ प्रश्न है। हिंसा और अहिंसा की बहुत सारी समस्याएं हैं। उनके सन्दर्भ में विचार करें त नष्कर्ष की भाषा में अहिंसक की तीन मर्यादाएं प्रस्तुत होती हैं--
१. उपदेश, हृदय परिवर्तन । २. मौन । ३. एकांत में चले जाना।
हिंसा और अहिंसा के सन्दर्भ में यह बहुत मार्मिक सूत्र है---'तओ आयरक्खा पण्णत्ता"। हम इस छोटे से पाठ को समझने का प्रयत्न करें तो हमारी समस्या का समुचित समाधान हो सकेगा। १. ठाणं ३/३४८
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