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मंजिल के पड़ाव के आदानों-अवदानों को बाहर पहुंचाता है तेजस शरीर और स्थूल शरीर के सारे अवदानों को भीतर ले जाता है तैजस शरीर। यह तैजस शरीर-- विद्युत् शरीर एक सेतु बना हुआ है। यह तैजस शरीर ही तपस्या से प्राप्त ऊर्जा को भीतर ले जाकर चोट करता है कर्मशरीर पर । जब कर्मशरीर पर चोट होगी तब कर्म प्रकंपित होंगे, कर्मों की निर्जरा होगी। यह है निर्जरा की प्रक्रिया । सहने का अभ्यास करें
शरीर में आने वाले कष्टों को हम समभाव से सहते हैं, इसका तात्पर्य है-भावना के साथ सहन करते हैं । निर्जरा के दो भेद किए गए-- सकाम निर्जरा और अकाम निर्जरा । कष्ट सहा और भावना पूरी नहीं है तो ताप पैदा होगा पर निर्जरा अल्प होगी, मूल्यवान् निर्जरा नहीं होगी । यदि उसके साथ भावना की शक्ति जुड़ी हुई है तो मूल्यवान् निर्जरा होगी। भावना ऐसी शक्ति पैदा करती है कि संचित कर्मों की एकदम सफाई हो जाती है। शरीर में आए हुए कष्टों को सहना, उसमें समभाव रखना जरूरी है । जो इतना सहन कर लेता है, वह महान् फल प्राप्त करता है । जैन परम्परा में यह विशेष बात है कि उसमें कष्टों को सहन करने का अभ्यास कराया जाता है । जिनकल्पी मुनि का अभ्यास तो बहुत अधिक कठिन है। साधना की वह भूमिका है, जिसमें छह माह तक आहार-पानी न मिले तो भी उसे सहन किया जाता है। इतना कठिन अभ्यास एक जिनकल्प की साधना करने वाले व्यक्ति को करना होता है। एक सामान्य व्यक्ति के लिए यह निर्देश दिया गया---एक दिन आहार न मिले तो वह सहन करे । यह अभ्यास सबको होना चाहिए। विकास का सूत्र
समस्या को झेलना बड़ा मुश्किल है। उसके तीन विघ्न हैं-आलस्य, प्रमाद और सुविधावादी मनोवृत्ति । जब व्यक्ति कष्ट सहना नहीं चाहता, काम करना नहीं चाहता, तब समस्या उलझती है । जो आरामतलब है, वह कठिनाइयों को झेल नहीं सकता। जो व्यक्ति कठिनाइयों को झेलना जानता है, समस्या के आने पर घटने नहीं टेकता, वही व्यक्ति सफल हो सकता है । यह अध्यात्म की साधना का सूत्र है, व्यवहार की साधना का सूत्र है । जिसके जीवन में यह सूत्र अवतरित हो जाता है, उसका जीवन विकास का जीवन बन जाता है।
देहे दुक्खं महाफलं यह विकास का सूत्र है । हम इसका अभ्यास करें, साधना करें। चाहे एक साथ न सधे, धीरे-धीरे साधे । यह सहिष्णुता की साधना का सूत्र है। हम इस सूत्र पर मनन करें, धृति, मनोबल और पराक्रम का विकास करें, समस्या संकुल युग में प्रसन्नता का सूत्र उपलब्ध हो जाएगा ।
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