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जयानायं और मार्म
१४३.
माध्वियों के प्रत्येक सिंघाड़ें में पांच अथवा चार साध्वियां। एक सामान्य व्यवस्था बन गई।
व्यवस्था के साथ अध्यात्म मार्क्सवाद के मुख्य दो सूत्र हैं-उत्पादन और वितरण; इन पर समाज और सरकार का अधिकार रहे, व्यक्तिगत अधिकार न रहे। पुस्तकों का, शिप्यों का उत्पादन (संग्रह) करना तथा वितरण करना आचार्य का काम होता है। जयाचार्य ने दोनों बातों को संभाला। उस समय किमी के पास वहत पस्तकें थी, किसी के पास कछ भी नहीं था। जयाचार्य ने इस ममत्व को भी कम किया। उन्होंने पुस्तकों का भी संघीकरण (गष्ट्रीयकरण) कर दिया। इस व्यवस्था से ममत्व विसर्जन का भाव प्रवल बना। जब साधु-साध्वियां चातुर्मास समाप्त कर आचार्य के पास आते हैं तब सबसे पहले बोलते हैं-'मैं, ये साधु-साध्वियां, ये पुस्तक-पन्ने आपके चरणों में समर्पित हैं। आप जहां रखें, वहां रहने का भाव है।' यह शब्दावलि कहे बिना आहार-पानी भोगने का त्याग है। यह सारा किस आधार पर हुआ? इसका कारण यही है-व्यवस्था के साथ अध्यात्म का बल था, निर्ममत्व की साधना और संयम का बल था।
जयाचार्य और मार्क्स : तुलना की आधारभूमि
यह मूलभूत अन्तर है जयाचार्य और मार्क्स में। मार्क्स ने जहां साध्य-माधन - दोनों पर विचार किया और उसे लाग करने के लिए बल-प्रयोग भी किया, वहां जयाचार्य ने कभी बल-प्रयोग नहीं किया। बल के द्वारा आदमी को नहीं हांका जा सकता। आदमी यन्त्र नहीं है। उसे मारा तो जा सकता है, लाठी के बल पर चलाया नहीं जा सकता। वह चलेगा अपनी इच्छा से। आदमी स्वतन्त्र है। धर्म का क्षेत्र पूर्ण स्वतन्त्रता का क्षेत्र
जयाचार्य और मार्क्स - दोनों का तलनात्मक अध्ययन करने के बाद जो निष्कर्ष आता है, वह यही है-आदमी को चलाना है तो वह अध्यात्म की चेतना के द्वारा ही स-भव है। उसकी आन्तरिक चेतना को जगाकर यह समझाया जाए - यह कार्य तुम्हारे हित में है, यह तुम्हारे कल्याण के लिए
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