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________________ मनोभाव को कैसे जानें ? ८३ हृदयंगम करें कि श्वास-दर्शन, शरीर दर्शन और चक्र दर्शन का अपना मूल्य है । किन्तु उससे ज्यादा मूल्य इस बात का है कि हम एकाग्रता की शक्ति को कितना विकसित कर पाते हैं ? यह बहुत मूल्यवान् बात है । जब यह शक्ति प्राप्त हो जाती है तब हम अपनी इच्छानुसार उसका उपयोग कर सकते हैं और किसी भी बन्द द्वार को खोल सकते हैं । परोक्ष और प्रत्यक्ष की दूरी को मिटाने के लिए एकाग्रता के साथ-साथ आत्म-संयम का विकास भी अत्यन्त अपेक्षित है । यदि ध्यान-साधक आत्मसंयम का विकास नहीं करता तो वह दूरी को कभी मिटा नहीं सकता। जब तक व्यवहार, आचरण और इच्छा पर नियन्त्रण नहीं सधता, तब तक संभव नहीं है कि यह दूरी मिट सके और हम परोक्ष को प्रत्यक्ष बना सकें । जिसमें आत्म-संयम नहीं होता, उसके मन में इतना कुतूहल, इतनी आकांक्षा, इतनी उत्सुकता, इतनी लालसा रहती है कि वह कहीं एक बिन्दु पर नहीं टिक पाता । इतना असंयम होता है कि पैर रास्ते पर नहीं चलते, ऊबड़-खाबड़ चलते हैं । रेल पटरी पर चलती है तो निश्चित ही गंतव्य तक पहुंच जाती है । यदि वह पटरी से नीचे उतर जाए तो क्या होता है ? मनुष्य के लिए यह आवश्यक है कि वह संयम की मर्यादा में चले । वह अपने पर नियन्त्रण रखे । मन इतना अनियंत्रित न हो जाए कि जब चाहे तब जो चाहे सो कर डाले । आदमी में यह विवेक होना चाहिए और नियन्त्रण की यह शक्ति होनी चाहिए कि वह जो कार्य जब चाहे तब कर सके । मन दौड़े नहीं, वह वश में रहे । मिस्र की एक घटना है। वहां के एक प्रसिद्ध साधक थे जूनूसूपी । बहुत पहुंचे हुए साधक । उनके पास एक शिष्य धर्म की दीक्षा लेने के लिए आया । प्राचीन काल में शिष्य की कड़ी कसौटियां होती थीं। साधक ने नवागन्तुक शिष्य से कहा—-धर्म की दीक्षा लेने आए हो ? अभी यहां रहो । वह रह गया। वह शिष्य था युसूफ हुसेन, जो आज प्रसिद्ध महात्मा के रूप में विख्यात हैं। गुरु ने कहा-सेवा करते रहो और यहीं रहो । चार वर्ष बाद प्रयोग बताएंगे । चार वर्ष पूरे हुए। एक दिन गुरु ने शिष्य को बुलाकर कहा- नील नदी के किनारे मेरा एक मित्र रहता है । उसको यह सन्दूक दे आओ । शिष्य युसूफ उस सन्दूक को उठा, नील नदी की ओर चला । रास्ते में उसके मन एक विकल्प उठा - सन्दूक में क्या है, देख लेना चाहिए ।' 'फिर सोचा, कुछ भी हो मुझे क्या ? आगे चला फिर वही विकल्प उठा - - सन्दूक को खोल कर देख लेना चाहिए। अब वह अपने पर काबू नहीं रख सका । उसने सन्दूक नीचे रखी और उसका ढक्कन खोला । उसमें एक चूहा था । ढक्कन खुलते ही चूहा बाहर कूद पड़ा और चला गया । उसने कहा- कोई बात नहीं, चूहा था, भाग गया। वह नील नदी के तट पर पहुंचा। वहीं गुरु का मित्र रहता था । उसने कुटीर में जाकर कहा - गुरु I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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