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________________ मनोभाव कैसे जानें ? मैंने संतों से ही सुना है कि जो जैसा देता है, वह वैसा ही पाता है । यदि मैं आप जैसे संतों को यह धोवन/ राख या गोबर का पानी दूं तो मुझे अगले जन्म में ऐसा ही पानी पीने को मिलेगा। मैं ऐसा पानी पी नहीं सकती। इसलिए मैं ऐसा पानी नहीं दूंगी। आप चाहें तो कुए का ताजा पानी ले लें। मुनियों ने उसे समझाया, पर वह नहीं समझी। मुनि बिना पानी लिए स्थान पर आ गए। उन्होंने सारी घटना आचार्य भिक्षु के सामने रखी। बहिन के तर्क भी रख दिए । आचार्य भिक्षु बोले-चलो, मैं चलता हूं। वे आए । आचार्य भिक्षु ने पानी की याचना की। बहिन ने पहले वाले तर्क के आधार पर पानी देने से इन्कार हो गई । आचार्य भिक्षु बोले-बहिन ! गाय रखती हो ? हां महाराज ! तीन गाएं हैं। उन्हें क्या खिलाती हो ? घास-फूस-चारा खिलाती हूँ। गायों से क्या मिलता है ? महाराज ! अमृत जैसा दूध मिलता है। अरे बहिन ! खिलाती हो घास और मिलता है दूध ! तो क्या साधु को शुद्ध दान देने से अमृत नहीं मिलेगा ? बहिन समझ गई। उसने सारा पानी संतों के पात्रों में उड़ेल दिया। जब अन्तर्प्रज्ञा जागी हुई होती हैं तब कठिन बात भी सरल बन जाती है । प्रज्ञा जागी हुई नहीं होती है तो सरल बात भी कठिन, कठिनतर बन जाती है । प्रज्ञा के अभाव में छोटी सी समस्या भी पहाड़ जैसी बन जाती है। पारिवारिक या सामुदायिक जीवन की समस्याएं बहुत बड़ी नहीं होती, बहुत छोटी होती हैं, पर वे प्रज्ञा या अन्तर्दृष्टि के अभाव में इतनी बड़ी बन जाती है कि उनका समाधान पूरे जीवन में भी नहीं हो पाता। 'मैं ओरों के साथ भोजन कर सकता हूं, पर भाई के साथ भोजन नहीं कर सकता। मैं पड़ोसी को प्रेम दे सकता हूं, पर अपने बेटे को प्रेम की दृष्टि से नहीं देख सकता।' ये बातें परिवारों में होती हैं। इनका कारण छोटा होता है पर पकड़ इतनी गहरी हो जाती है कि जीवन भर वह नहीं छूटती। यह सारा अन्तर प्रज्ञा के अभाव में होता है । जिस व्यक्ति का प्रज्ञाचक्षु उद्घाटित हो जाता है, उसके लिए समस्या समस्या नहीं रहती, बड़ी छोटी का तो प्रश्न ही क्या ? ध्यान की सारी साधना प्रत्यक्षीकरण की साधना है। ध्यान के द्वारा हम परोक्ष भावों को प्रत्यक्ष कर सकते हैं। प्रेक्षाध्यान की प्रक्रिया में केवल श्वास का साक्षात्कार ही नहीं होता, अपने शरीर के प्रकंपनों और विद्युत् हलन-चलन का ही साक्षात्कार नहीं होता किन्तु अभ्यास करते-करते हमारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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