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________________ भाव और आयुर्विज्ञान की कल्पना सताने लग जाती है, कभी वर्तमान का चिंतन सताने लग जाता है । हमने इन आलंबनों को इसलिए चुना है कि आदमी स्मृति, कल्पना और चितन के चक्र से बच सके । आलंबन भी शरीरगत है । वह शरीर में विद्यमान है। बाहर से कुछ भी नहीं लेना है । एक भाई पहली बार ध्यान शिविर में आया । उसने पूछा-ध्यान के लिए क्या-क्या सामग्री अपेक्षित होती है ? मैंने कहा- तुम्हारा शरीर चाहिए और कुछ नहीं । श्वास तुम्हारे साथ है, शरीर में होने वाले प्रकंपन तुम्हारे साथ हैं, चैतन्य केन्द्र तुम्हारे साथ हैं, लेश्याएं तुम्हारे साथ हैं । ध्यान के लिए केवल शरीर चाहिए। कपड़ा और रोटी शरीर के लिए चाहिए, ध्यान के लिए नहीं । ध्यान की सारी सामग्री शरीर में है। सारे आलंबन भीतर में हैं। बाहरी आलंबनों से जितना आंतरिक या रासायनिक परिवर्तन नहीं होता, उतना परिवर्तन इन भीतरी आलंबनों से हो जाता है । बाहरी आलंबनों का सहारा लेने वाला कभी-कभी कुछ सफल हो सकता है पर निरन्तर सफलता उसे नहीं मिलती। जो श्वास दर्शन का आलंबन लेता है, उसे पता ही नहीं होता कि चंचलता क्या होती है ? जो चलते-फिरते, उठते-बैठते श्वास दर्शन का अभ्यास कर लेता है, वह चंचलता से मुक्त हो जाता है । भारत के भूतपूर्व वित्तमंत्री सी० सुब्रह्मण्यम् ने प्रेक्षा ध्यान सीखा । दो वर्षों के बाद मिले। उन्होंने कहा- अब तो मेरी स्थिति विचित्र बन गई है । जब कभी वायुयान में यात्रा करता हूं, तो मैं देखता हूं-- मेरे साथी पुस्तकें पढ़ते हैं, अखबार पढ़ते हैं, मेग्जीन्स् पढ़ते हैं, मैं कुछ नहीं पढ़ता । पुस्तकें साथ में रखनी ही छोड़ दी । जब भी, जहां भी बैठता हूं, श्वास पर ध्यान टिका देता हूं । मेरे साथी कहते - अरे ! बैठे-बैठे क्या कर रहे हो ? किताबें पढ़ो। मैं कहता हूं-- 'मुझे जो करना है, वह कर रहा हूं। मैं कभी बोर नहीं होता । मुझे पता ही नहीं होता कि पांच घंटे सात घंटे कैसे बीत जाते हैं । समय-बोध सीमित हो जाता है । ऐसा रासायनिक परिवर्तन होता है कि बाहर की स्थिति का बोध भी कम होने लग जाता है ।' इन आलंबनों से हमारी चंचलताएं कम होने लग जाती हैं । हम इन आलंबनों का मूल्य समझें, आलंबनों के द्वारा जो प्राप्य है, उसे प्राप्त करें । वर्तमान क्षण में जीने का अभ्यास जीवन की सफलता का मूल मंत्र है । Jain Education International ७७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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