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________________ मन की शान्ति का प्रश्न ६७ तो स्पेस और टाइम को समझना होगा । यदि स्पेस और टाइम को नहीं समझा जाता है तो न आइन्स्टीन को समझा जा सकता है और न सापेक्षवाद को समझा जा सकता हैं । इसी प्रकार इन चार आयामों-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को समझे बिना अनेकान्त को नहीं समझा जा सकता और सत्य को भी नहीं समझा जा सकता । वस्तु की सही व्याख्या नहीं की जा सकती । मन पर क्षेत्र का भी प्रभाव पड़ता है और काल का भी प्रभाव पड़ता है । आदमी एक स्थान पर जाता है और अचानक उसके भावों में परिवर्तन आ जाता है, मन बदल जाता है । श्रवण कुमार अपने बूढ़े माता-पिता को कावड़ में बिठाकर ले जा रहा था । चलते-चलते एक स्थान पर उसके मन में यह भाव जागा- मेरे माता-पिता की आंखें नहीं हैं, वे देख नहीं सकते । पर उनके पैर तो हैं, वे चल तो सकते हैं। आंखों से नहीं चला जाता, पैरों से चला जाता है । पर मजबूत हैं, आंखें भले ही न हों । तर्क पर तर्क चलता रहा । मैं कावड़ को कंधों पर उठाकर, इन्हें लिए लिए क्यों फिरूं ? क्यों ढोऊं ? तर्क ने अपना काम किया और श्रवण कुमार ने व्यर्थ ही भार कावड़ को कंधे से उतारकर रख दिया । उसने कहा -- पूज्य माता-पिता ! आपके पैर मजबूत हैं, आप पैदल चल सकते हैं। आंखें नहीं हैं तो मैं रास्ता दिखाता चलूंगा, आपकी लाठी पकड़े आगे-आगे चलूंगा, आप पैदल चलें । मुझ पर यह व्यर्थं का बोझ क्यों ? माता-पिता ने सोचा --- अरे, इतना नम्र और सुशील श्रवण कुमार, हमारा पुत्र ! इतना अनुशासित और माता-पिता का भक्त श्रवण कुमार ! आज इसका यह व्यवहार कैसे ? पिता ऋषि था, ज्ञानी था । उसने ध्यान किया, जान लिया और तत्काल नीचे उतर गए । पैदल चलने लगे । पांच सौ कदम गए होंगे, श्रवण कुमार ने सोचा - ओह ! मैंने यह क्या कर डाला ? मैंने अनर्थ कर दिया। माता-पिता को कावड़ में ले जाने की प्रतिज्ञा से मैं चला था, बीच में उन्हें पैदल चलने के लिए मजबूर किया, यह मेरा बड़ा अपराध हो गया । वह रुका । माता-पिता के पैरों में गिरकर, गिड़गिड़ाते हुए बोला -- 'पूज्यवर ! आप कावड़ में बैठें। मैं कावड़ में ही आपको यात्रा कराऊंगा। मैंने जघन्यतम अपराध किया है, आप क्षमा करें ।' पिता ने कहा 'वत्स ! तेरा कुछ भी अपराध नहीं है । अपराध सारा क्षेत्र का है । उस क्षेत्र में आते ही तेरा वह मनोभाव बना और जैसे ही उस क्षेत्र से हम बाहर आए, वह मनोभाव मिट गया । यह अपराध क्षेत्र का था, तुम्हारा नहीं । इस भूमि पर आते ही मनोभाव बदल जाते हैं, उद्दंडता आ जाती है। क्योंकि यह भूमि उस असुर की है, जिसने अपने माता-पिता का वध किया था। इस भूमि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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