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________________ विधायक दृष्टिकोण साथ चल सके ? ऐसा होना असंभव नहीं है। पहले धर्म और अध्यात्म का प्रयत्न इसी दिशा में शुरू हुआ था । यह होता है, समय बीतते-बीतते आग पर इतनी गख छा जाती है कि आग का अस्तित्व बुझा हुआ सा लगता है । हम पुरुषार्थवादी हैं । हमारा प्रयत्न इस ओर होना चाहिए कि जब-जब आग पर राख आए तब-तब हमारे हाथ उस राख को हटाने में लगे । जीवन विज्ञान इसी दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयत्न है। एक साधक संत भक्त के घर पर भिक्षा लेने गए। हाथ में कमण्डलू था। भक्त ने प्रसन्नता व्यक्त की। महात्मा के लिए बहुविध भोजन बनाए हुए थे । भक्त ने कहा--महात्मन् ! भिक्षा लें । महात्मा ने उसे कमण्डलू देते हुए कहा--इसमें भिक्षा भर दो । उसने कहा-कमण्डलू तो गोबर से भरा पड़ा है। मेरी सारी वस्तुएं खराब हो जाएंगी।' महात्मा ने कहा-धोकर साफ कर दे, फिर इसमें डाल देना। उसने पानी से कमण्डलू धो डाला। वह स्वच्छ हो गया। महात्मा ने कहा--वत्स ! जैसे तूने कमण्डलू का गोबर साफ किया है, वैसे ही तु अपने मन से गोबर निकाल कर उसे स्वच्छ कर डाल ।' कमण्डलू को साफ किया जा सकता है। मन को भी स्वच्छ किया जा सकता है। कल भी इसकी संभावना थी, आज भी है और आगे भी संभावना बनी रहेगी। हमारे भीतर दो क्षमताएं विद्यमान हैं। एक है ज्ञान के विकास की क्षमता और दूसरी है चरित्र के विकास की क्षमता । एक है ज्ञान-चेतना की क्षमता और दूसरी है चरित्र-चेतना की क्षमता। इन दोनों क्षमताओं को विकसित करने का अर्थ है-जीवन-विज्ञान । केवल ज्ञान की क्षमता विकसित हो जाए और चरित्र की क्षमता सुषुप्त रह जाए-यह वांछनीय नहीं है। दोनों का विकास अपेक्षित है। हमारे शरीर तंत्र का भी यही नियम है। नाड़ी-संस्थान यानी मस्तिष्क विकसित हो तो साथ-साथ ग्रंथितंत्र भी विकसित हो, संतुलित हो । जब दोनों का विकास होता है तब चरित्र को भी बल मिलता है और ज्ञान को भी बल मिलता है। ज्ञान से चरित्र का विकास होता है और चरित्र से ज्ञान का विकास होता है । ज्ञान पढ़ने से आता है, पर कम आता है। जितना ज्ञान चरित्र से आता है, उतना पढ़ने से नहीं आता। आज के वातावरण में यह बात अटपटी लग सकती है, किन्तु यह सही है और अनुभवसिद्ध है। पुस्तकीय अध्ययन मात्र से ज्ञान का विकास नहीं होता। वह होता है प्रज्ञा से, इन्ट्यूशन से । जब हमारी अन्तर् प्रज्ञा जागती है, इन्ट्यूशन जागता तब ज्ञान पानी में पड़ी तेल की बूंद की तरह विस्तार पा लेता है। ज्ञान की जो सहज क्षमता है, उसे जागने का अवसर मिल जाता है। ज्ञान की बड़ी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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