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विधायक दृष्टिकोण
हम ऐसी स्थिति में जी रहे हैं, जहां समस्या का उत्पन्न होना अनिवार्य है । समाधान की खोज चलती है, पर समस्या को अनिवार्यता को टाला नहीं जा सकता।
हम दो विरोधी तत्त्वों को साथ लिए चल रहे हैं । एक है हमारी चेतना और दूसरा है हमारा शरीर । वह अचेतन है। चेतन और अचेतन---- दोनों को साथ लिए चलना अपने आप में एक समस्या है । यह समस्या और अनेक समस्याएं पैदा करती है।
सभी लोग सफलता का जीवन जीना चाहते हैं। कोई भी व्यक्ति असफल रहकर जीना नहीं चाहता। सफल जीवन के लिए यह आवश्यक है कि दृष्टिकोण सही रहे, विधायक रहे, सृजनात्मक और रचनात्मक रहे । नकारात्मक दृष्टिकोण निराशा, संवेग, भय, चिन्ता पैदा करता है । ये सारी प्रवृत्तियां मनुष्य को बहुत पीड़ित करती हैं। यदि हम एकान्त में बैठकर अपना विश्लेषण करें तो हमें ज्ञात होगा कि हम जिसको शत्रु मानते हैं, वह भी उतना नहीं सताता, जितना सताता है हमारा नकारात्मक दृष्टिकोण, निषेधात्मक भाव । सचाई तो यह है कि कोई भी व्यक्ति हमें दुःख नहीं दे सकता, यदि हमारा दृष्टिकोण निषेधात्मक न हो तो । कोई भी व्यक्ति हमें तभी दुःखी बना सकता है, पीड़ित कर सकता है, जब हमारा दृष्टिकोण निषेधात्मक होता है।
विश्व विजेता सिकंदर भारत से एक साधु को यूनान ले जाना चाहता था। भारत पर विजय प्राप्त कर वह अपने देश लौटने लगा। एक साधु से कहा-'चलो, मेरे देश में ।' साधु ने कहा- 'मैं क्यों चलूं ? मैं नहीं चलता।'
'जानते हो मैं कौन हूं?' 'हां जानता हूं, तुम एक मानव हो।' 'मैं विश्व विजेता सिकन्दर हूं।' 'अच्छा ! तो मुझे क्या ?'
'मेरी आज्ञा की अवहेलना करने का पुरस्कार है-मृत्यु ।' मेरी एक वक्रदृष्टि से सारा संसार कांप उठता है। तुम चलने से इनकार कर रहे हो ?
'तुम पागलपन की बात कर रहे हो। मुझे मौत नहीं डरा सकती। मैंने उस पर विजय प्राप्त कर ली है।'
सम्राट सिकन्दर साधु को देखता रह गया। उसका अभय, उसकी
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