SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६ अवचेतन मन से संपर्क जो प्राप्त होता है, वह निश्चित ही हमारे भाव परिवर्तन के लिए प्रभावी हो सकता है। कोरा सुनना या पढ़ना प्रभावी नहीं हो सकता । किसी ने ठीक ही लिखा होगा कि पुरुष एक कान से सुनता है और दूसरे से निकाल देता है । स्त्री दोनों कानों से सुनती है और मुंह से निकाल देती है । वह स्वाध्याय बहुत प्रभावी हो सकता है, परिवर्तन का सशक्त माध्यम बन सकता है, जिसके साथ मनन जुड़ा हुआ होता है । संभवतः कठिनाई यह हो रही है कि आज का आदमी बहुत अधिक पढ़ता है । वह इतना ज्यादा पढ़ता है कि उसके पास मनन करने का अवकाश ही नहीं रहता । आज विद्यालयों में कोर्स इतना भारी भरकम होता है कि विद्यार्थी को मनन करने का समय ही नहीं मिल पाता । छोटे-छोटे विद्यार्थी जब स्कूल जाते हैं, तब बेचारे अपनी पुस्तकों का बोझ भी नहीं उठा पाते। एक नौकर उनके साथ चलता है और जो स्वयं ले जाते हैं वे बहुत कठिनाई का अनुभव करते हैं । कोर्स बहुत भारी है । प्राचीन पद्धति बहुत भिन्न थी । गुरु पाठ पढ़ाते और फिर विद्यार्थी को मनन करने के लिए कहते । उसे पूरा समय दिया जाता मनन के लिए । प्राचीन प्रणाली है— पढमं पोरिसि सज्झायं, बीयं झाणं झियायए । एक प्रहर तक पढ़ो और एक प्रहर तक पढ़े हुए पाठ की अनुप्रेक्षा करो। उस पर अनुचितन करो, उस पर मनन करो । यह क्रम था । पठन और मनन - दोनों साथ-साथ चलते थे । मनन के द्वारा जो नवनीत मिलता है, जो उपलब्धि होती है वह केवल पढ़ने से नहीं होती । वह स्वाध्याय परिवर्तन का घटक बनता है, जिसमें श्रवण और मनन विभक्त नहीं हैं । दूसरा तत्व है-ध्यान । ध्यान के द्वारा वृत्तियों का परिवर्तन होता है, मस्तिष्क का नियमन होता है । इससे नाड़ी संस्थान और ग्रन्थि-संस्थान पर नियन्त्रण होता है । आज के डाक्टर शरीर की विभिन्न धातुओं, सूक्ष्म नाड़ियों, शिराओं और रक्ताभिसरण से परिचित हैं, हृदय और मस्तिष्क के फंक्शन से परिचित हैं, किन्तु प्राणधारा से परिचित नहीं हैं। एक्यूपंक्चर और एक्यूप्रेजर में उस पर विचार किया गया है। ये दोनों चिकित्सा पद्धतियां प्राणधारा के आधार पर चलती हैं । प्राणधारा की प्रक्रिया परिवर्तन की बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है । ध्यान के द्वारा हम प्राणधारा को प्रभावित करते हैं । ध्यान - काल में कहा जाता है --अमुक केन्द्र पर ध्यान को एकाग्र करो। इसका तात्पर्य है कि जहां चित्त जाएगा, टिकेगा, वहां प्राणधारा का प्रवाह अधिक हो जाएगा । प्राण और चित्त- दोनों का योग है । कल्पना करें कि एक व्यक्ति की अंगुली में दर्द है । वह अंगुली पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है । थोड़े समय बाद उसे अनुभव होने लगेगा कि दर्द कम हो रहा है। यह कोई चमत्कार नहीं है । यह तो एक नियम है। जहां चित्त एकाग्र होता वहां प्राण का अतिरिक्त प्रवाह होने लगता है । प्राण के प्रवाह की अतिरिक्तता अवरोध को समाप्त करती है। है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy