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________________ अवचेतन मन से संपर्क जाती हैं । यह भी ध्यान की एक अवस्था है। ध्यान तीन प्रकार से किया जाता है---खुली आंखों से, बन्द आंखों से और अर्धनिमीलित आंखों से। यह भी एक प्रयोग है। साधक अर्ध-खुली आंखों से भीतर भी झांकता है और बाहर भी देखता है । 'जहा अंतो तहा बाहिं, 'जहा बाहिं तहा अंतो' जैसा भीतर वैसा बाहर और जैसा बाहर वैसा भीतर । बाह्य व्यक्तित्व और आन्तरिक व्यक्तित्व-दोनों का ध्यान करना जीवन की समग्र दृष्टि है। जिसने केवल बाह्य को ही देखने का प्रयत्न किया, वह समस्या से मुक्त नहीं हो सकता । जिसने केवल अन्तर को ही देखने का प्रयत्न किया, वह भी समस्या से मुक्त नहीं हो सकता । क्योंकि बाहर की समस्याएं यथार्थ की समस्याएं हैं, उनका समाधान संभवतः भीतर न मिल सके। रोटी की समस्या खेती से ही समाहित हो सकती है, ध्यान से नहीं । रोटी का प्रश्न यथार्थ का प्रश्न है । इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता । एक मनोवैज्ञानिक ने लिखा--दो शब्द हैं, रोटी और आस्था । रोटी का स्थान आस्था नहीं ले सकती और आस्था का स्थान रोटी नहीं ले सकती । आस्थाविहीन रोटी और रोटीविहीन आस्था--- समस्या का समाधान नहीं है। आदमी को रोटी भी चाहिए और आस्था भी चाहिये । आस्था का काम आस्था से होगा और रोटी का काम रोटी से होगा । आज की राजनैतिक प्रणालियों ने रोटी पर अतिरिक्त भार दे डाला, इसलिये आस्था खंडित हो गई । आस्था के खंडित होने पर क्या-क्या परिणाम आते हैं, वे सब उन-उन प्रणालियों में उभर कर आ रहे हैं। कोरी आस्था से रोटी नहीं मिलेगी, गरीबी नहीं हटेगी । समग्रता का दृष्टिकोण यह होगा कि रोटी के स्थान पर रोटी और आस्था के स्थान पर आस्था । बाहरी व्यक्तित्व के स्थान पर बाहरी व्यक्तित्व और आन्तरिक व्यक्तित्व के स्थान पर आन्तरिक व्यक्तित्व-~-दोनों का समन्वय और संतुलन होना चाहिए। ध्यान इस सन्तुलन को स्थापित करने की पद्धति है । श्वास-प्रेक्षा का प्रयोग सन्तुलन का प्रयोग है। वह भीतर भी आता है और बाहर भी जाता है । भीतर कुछ लेकर जाता है और बाहर कुछ लेकर आता है। यदि श्वास को भीतर ही रखें तो कार्बन बाहर नहीं आएगा। यदि उसे बाहर ही रखें तो ऑक्सीजन भीतर नहीं जाएगी, प्राणशक्ति प्राप्त नहीं होगी। यह तो जीवन का क्रम है । ध्यान का क्रम भी यही है कि हम अपने भीतरी व्यक्तित्व का अनुभव भी कर सकें और बाहरी व्यक्तित्व का भी अनुभव कर सकें। हमने आन्तरिक व्यक्तित्व से अपरिचित रहकर संभवतः बहुत खोया है। हमारे सूक्ष्म शरीर में दो प्रकार की धाराएं प्रवहमान हैं । एक वह धारा है, जिसको हमने अपने बुरे आचरण, बुरे भाव और बुरे व्यवहार के द्वारा अजित किया है और एक वह धारा है, जिसको हमने अच्छे चिंतन, अच्छे भाव, अच्छे आचरण-व्यवहार द्वारा अजित किया है । कौन-सी धारा कब प्रगट हो, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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