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________________ काम-परिष्कार का पहला सूत्र : मुक्तिदर्शन है। मस्तिष्क का पिछला भाग 'अनुमस्तिष्क' अध्यात्म का भाग है और इससे जुड़ा है 'सुषुम्नाशीर्ष' । यह सारा अलौकिक भाग है। ____शरीर में दो हिस्से हैं। एक है लौकिकता का हिस्सा और दूसरा है अलौकिकता का हिस्सा । अलौकिकता का हिस्सा सोया का सोया रहता है इसलिए विश्वास नहीं होता कि मनुष्य राग-द्वेष से मुक्त हो सकता है, वीतराग हो सकता है, सर्वज्ञ हो सकता है। आज की वैज्ञानिक खोजों ने मानवजाति पर बहुत बड़ा उपकार किया है और यह संभावना व्यक्त की है कि यदि आदमी मस्तिष्क को विकसित करे तो सर्वज्ञ बन सकता है, त्रिकालदर्शी बन सकता है । वह अतीत को जान सकता है, भविष्य को जान सकता है, दूर को जान सकता है, व्यवहित और सूक्ष्म को जान सकता है । जब केन्द्रीयनाड़ी-संस्थान, सुषुम्नाशीर्ष, अनुमस्तिष्क और मस्तिष्क का दायां भाग सक्रिय हो जाता है तब सर्वज्ञ होने की, राग-द्वेष से मुक्त होने की तथा त्रिकालदर्शी बनने की संभावना बन जाती है। विकास का सबसे बड़ा सूत्र है-संभावना की स्वीकृति । विकास की सबसे बड़ी बाधा है--संभावना को नकारना । संभावनाओं को नकारना अपने आपको पहले से ही रस्सों से बांध देना है। फिर आगे गति कैसे हो सकती है ? संभावना की अस्वीकृति सबसे बड़ा विघ्न है साधना का । यदि साधक मान ले कि मन को टिकाना संभव नहीं है, मन की चंचलता को मिटाना संभव नहीं है, यह करना संभव नहीं है, वह करना संभव नहीं है तो वह सारी संभावनाओं के द्वार को ही बंद नहीं करता, उस पर मजबूत ताला लगा कर चाबियों को खो देता है। हम साधना के क्षेत्र में संभावनाओं को स्वीकार कर चलें कि आदमी सर्वज्ञ और वीतराग हो सकता है। वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है । संभावना के आधार पर ही दिशा का निर्धारण होता है। जब संभावनाएं मन में दृढ़ हो जाती हैं तब उसी ओर प्रस्थान होने लगता है । संभावना के आधार पर ही हमारा प्रस्थान वीतरागता की दिशा में होगा, सर्वज्ञता की दिशा में होगा और मुक्ति की दिशा में होगा। एक भाई ने पूछाश्वास-दर्शन कामना के परिष्कार का सिद्धांत कैसे बन सकता है ? क्या सम्बन्ध है श्वास का और कामना का ? मैंने कहा---सीधा सम्बन्ध है दोनों का। जब हम श्वास को देखते हैं उस क्षण में श्वास के प्रति न राग होता है और न द्वेष होता है। श्वास को देखने का अर्थ राग-द्वेषमुक्त क्षण में जीना, समभाव में जीना। हम जितने क्षण राग-द्वेषमुक्त जीते हैं, उतना ही कामना का परिष्कार होता जाता है। कामना राग को पैदा करती है। कामना द्वेष को पैदा करती है । जब हम राग और द्वेष से मुक्त होकर जीते हैं तब कामना को बल नहीं मिलता, इंधन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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