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काम परिष्कार का पहला सूत्र : मुक्ति दर्शन
'मनुष्य मुक्त हो सकता है - यह दर्शन काम के परिष्कार का दर्शन है, मुक्ति का दर्शन है ।
चिन्तन की दो धाराएं रही हैं। कुछ दार्शनिकों ने स्वीकार कियामनुष्य सर्वज्ञ हो सकता है, मुक्त हो सकता है । दूसरी धारा के दार्शनिक इस मत से सहमत नहीं हुए । उन्होंने कहा -- मनुष्य कभी सर्वज्ञ नहीं हो सकता ! वह कभी मुक्त नहीं हो सकता । जो सर्वज्ञ नहीं हो सकता, वह स्वयंभू परमात्मा नहीं बन सकता, वह किसी परमात्मा में विलीन हो सकता है ।
जैन दर्शन ने इस सिद्धान्त को स्वीकृति दी - मनुष्य सर्वज्ञ हो सकता है । मीमांसक आदि दर्शनों ने इसमें आपत्ति प्रदर्शित की। उनका सिद्धांत थामनुष्य में राग-द्वेष समाप्त नहीं होता । वह कितनी ही साधना करे, उसमें राग-द्वेष का विलय नहीं देखा जाता । बड़े से बड़े व्यक्ति में राग मिलता है, द्वेष मिलता है । धर्म के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों में भी राग-द्वेष प्राप्त होता है । प्रशासन के क्षेत्र में भी यही बात है । परिवार के सदस्य या अधिकारी भी इसके अपवाद नहीं हैं । इसलिए कोई व्यक्ति सर्वज्ञ धातुओं से निष्पन्न शरीरधारी मनुष्य राग-द्वेष से मुक्त राग और द्वेष से मुक्त परमात्मा हो सकता है, ईश्वर हो सकता है और वही सर्वज्ञ हो सकता है । दूसरे लोगों में सामर्थ्य ही कहां है कि वे राग-द्वेष से मुक्त हो जाएं ?
नहीं हो सकता । सात
कैसे हो सकता है ?
अकबर ने बीरबल से कहा-बीरबल ! आज रात को मैंने अनोखा सपना देखा | बड़ा विचित्र सपना था । मैंने देखा - दो कुंड हैं । एक अमृत से भरा है और दूसरा कीचड़ से । हम दोनों जा रहे थे । मेरा पैर फिसला और मैं अमृत के कुंड में जा गिरा। तुम भी फिसले और कीचड़ में गिर पड़े । बीरबल ने बादशाह की भावना जान ली। उसने तपाक से कहा--- जहांपनाह ! आपका सपना सही है मैंने रात को सपना देखा था । अद्भुत सपना था और वह आपके सपने से कुछ लम्बा था । मैंने देखा, दो कुंड हैं पास-पास में । एक अमृत से भरा हुआ है और दूसरा कीचड़ से । आप अमृत के कुंड में गिर गए और मैं कीचड़ के कुंड में गिर गया । परन्तु जहांपनाह !
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मेरा सपना आगे बढ़ा। हम दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर बाहर निकले । मैं कीचड़ से लथपथ था और आप अमृत से भरे थे । आपने मुझे चाटना प्रारम्भ किया और मैंने आपको चाटना प्रारम्भ किया । इतने में
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