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________________ अध्यात्म चेतना १७३ बिन्दु पर पहुंचकर आदमी को विवश होकर सोचना पड़ता है कि समस्या का कोई नया समाधान खोजना चाहिए, जिससे बीमारी बढ़े नहीं, वह अचिकित्स्य न बने । वह समाधान है आध्यात्मिक चेतना का जागरण, अकेलेपन की अनुभूति । जिस व्यक्ति ने अकेलेपन का अनुभव किया, उसने सैकड़ों कष्टों से मुक्ति पा ली। पति-पत्नी में वैमनस्य, पिता-पुत्र में वैमनस्य, भाई-भाई में वैमनस्य, स्वामी-सेवक में वैमनस्य, गुरु-शिष्य में वैमनस्य तब होता है जब अकेलेपन का अनुभव नहीं होता। पत्नी ने यह मान लिया कि पति और मैं भिन्न नहीं हूं। पिता ने मान लिया कि पुत्र और मैं भिन्न नहीं हूं। किन्तु जब एक-दूसरे के स्वार्थ टकराते हैं तब पति-पत्नी को छोड़ देता है, पुत्र पिता से अलग हो जाता है। वह सोचता है ----अरे, यह कैसे हो गया ? मैंने इन्हें अभिन्न मान रखा था, फिर उन्होंने मेरे साथ ऐसा व्यवहार किया? इस स्थिति में आदमी इतना टूट जाता है कि उसे कोई संभाल नहीं सकता। पति मर जाता है या पत्नी की मृत्यु हो जाती है । पिता का देहान्त हो जाता है या पुत्र की मृत्यु हो जाती है । कहीं-कहीं इस स्थिति में पति या पत्नी पागल हो जाते हैं, पिता-पुत्र पागल हो जाते हैं । ऐसा क्यों होता है ? इसलिए कि हमने जानबूझकर यह स्थिति पैदा की है, व्यवहार के धरातल पर सत्य की हत्या की है। यदि हम सत्य को स्वीकार कर चलते कि मृत्यु अवश्यंभावी है। आज या कल सबको मरना है। यह जीवन की अनिवार्यता है । जीवन शाश्वत नहीं होता। संयोग कभी शाश्वत नहीं होता। संयोग का क्षण वियोग से जुड़ा रहता है । इस शाश्वत सत्य को अस्वीकार करने का परिणाम है-टूटना, दुःख पाना, मूर्छा को और अधिक सघन करना। यदि हम दोनों सचाइयों को सामने रखकर चलें कि संयोग और सम्बन्ध भी एक सीमा में यथार्थ हैं और वियोग तथा अकेलापन भी एक सचाई है तो समस्या उलझती नहीं। संयोग और सम्बन्ध-यह व्यवहारिक धरातल की सचाई है परन्तु मूर्छा इस सचाई को समझने नहीं देती। __ सत्य को समझने में सबसे बड़ी बाधा है मूर्छा, प्रमाद, अजागरण । इसलिए हम प्रेक्षा करना सीखें, प्रेक्षा का बहुत बड़ा परिणाम है- मूर्छा का टूटना । जब व्यक्ति अकेलेपन का अनुभव करने लगता है, तब सचमुच मूर्छा पर चोट होती है। जब प्रेक्षा ध्यान का अभ्यासी ज्योतिकेन्द्र पर इस एकत्व अनुप्रेक्षा का अनुचिंतन और अनुभव करता है और यह अनुभव गहरा होता चला जाता है, तब यह सचाई प्रत्यक्ष हो जाती है कि 'मैं अकेला हूं।' एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणलक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥ इस प्ररिप्रेक्ष्य में एक प्रश्न उभरकर आता है कि क्या इस चिंतन से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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