________________
१७२
अवचेतन मन से संपर्क
सारी चेतनाएं जाग जाती हैं।
आध्यात्मिक चेतना के शुद्ध अनुभव का सूत्र है-'मैं अकेला हूं।' अपने अकेलेपन का अनुभव करना उसका लक्ष्य है । व्यवहार की भाषा में 'मैं अकेला हूं' ऐसा नहीं कहा जा सकता। मेरी मां, मेरे भाई, मेरे सगे-सम्बन्धी, मेरा धन, मेरा परिवार, मेरा गांव, मेरा राष्ट्र-न जाने सम्बन्धों की श्रृंखला कितनी व्यापक बन जाती है। न जाने आदमी कहां-कहां से जुड़ा हुआ है। वह सैकड़ों-सैकड़ों धागों से बंधा हुआ है । वह उन धागों से इतना जकड़ा हुआ है कि समाज और व्यवहार के क्षेत्र में उसे कहीं भी अकेलेपन का अनुभव नहीं होता । किन्तु जब आध्यात्मिक चेतना जागती है तो सारे सम्बन्ध विसम्बन्ध हो जाते हैं, टूट जाते हैं और उसे लगता है- मैं अकेला हूं। दूसरा मेरा कोई नहीं है । न मैं किसी का हूं और न मेरा कोई है। - यह बात अटपटी अवश्य लग सकती है। समाज के परिप्रेक्ष्य में यह कसे माना जाए कि मैं अकेला हूं। यदि यह बात स्वीकार कर ली जाए तो घर में क्या होगा? न कोई रोटी परोसने वाली मिलेगी, न पानी पिलाने वाला मिलेगा और न कोई सेवा-चाकरी करने वाला मिलेगा। न कोई देने वाला मिलेगा और न कोई लेने वाला मिलेगा।
तब एक प्रश्न आता है कि फिर क्या किया जाए ? क्या अध्यात्म चेतना जगाएं या उसे वैसे ही रहने दें ? जगाने पर घर की, समाज की समस्याएं हैं और न जगाने पर भी अनेक समस्याएं हैं। पर, एक बात बहुत स्पष्ट है कि अध्यात्म चेतना के जागे बिना सामाजिक चेतना और नैतिक चेतना नहीं जाग सकती। फिर तो आदमी जिस चक्की में पीसा जा रहा है उसी में पिसता रहेगा। स्वार्थ बढ़ेगा और वह आदमी पर अनुशासन करता चला जाएगा। आज के सम्बन्धों की धुरी है स्वार्थ । स्वार्थ ही सब कुछ है । वह होता है तो सब कुछ होता है और वह नहीं होता तो कुछ भी नहीं होता ।
. आध्यात्मिक चेतना को जगाए बिना स्वार्थ पर अनुशासन नहीं किया जा सकता, अनैतिकता के चक्रव्यूह को नहीं तोड़ा जा सकता। धोखा देना, ठगना, प्रवंचना करना, तिरस्कृत करना, गला काटना, सताना, क्रूर व्यवहार करना, उद्दण्डतापूर्ण व्यवहार करना-यह सारा चलता रहेगा।
__आध्यात्मिक चेतना को नहीं जगाते हैं तो दोनों प्रकार की समस्याएं सताती हैं और यदि जागृत कर देते हैं तो अनुभव होता है-बाहरी दुनिया के सारे व्यवहार कृत्रिम हैं, नाटक जैसे हैं।
आज अनेक प्रकार के समाधान खोजे जा रहे हैं, परिस्थितियों और व्यवस्थाओं को बदलने के प्रयत्न किए जा रहे हैं, किन्तु सारे के सारे प्रयत्न अकृतार्थ हो रहे हैं । कोई प्रयत्न कृतार्थ नहीं हो रहा है। जैसे-जैसे दवा दी जा रही है, मर्ज बढ़ता जा रहा है, बीमारी असाध्य होती जा रही है। इस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org