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अवचेतन मन से सम्पर्क
सकता है। आज रिश्वत की बीमारी है तो प्राचीन काल में भी वह कम नहीं थी। महामात्य चाणक्य ने लिखा है-जल में तैरने वाली मछलियां आकाश में उड़ने लग जाएं, आकाश में उड़ने वाले पक्षी पानी में तैरने लग जाएं, यह कभी संभव हो सकता है पर राज्य-कर्मचारी रिश्वत न लें, यह कभी संभव नहीं है । प्राचीनकाल में मिलावट की भयंकर घटनाएं पढ़ने को मिलती हैं।
आज के आदमी ने विकास किया है। विचारों का बहुत विकास हुआ है। आज उतना क्रूर व्यवहार कोई नहीं करता। दास-प्रथा क्रूरता और शोषण का अन्तिम उदाहरण था। दासों की सारी स्वतंत्रता मालिक के चरणों में न्योछावर रहती थी। उसकी अपनी कोई स्वतन्त्र इच्छा नहीं होती थी। एक प्रकार से वह पशु का जीवन जीता था। आज का आदमी दूसरे आदमी के प्रति वैसा क्रूर व्यवहार नहीं कर सकता, उतना शोषण नहीं कर सकता।
जैसे-जैसे समय बीता है, वैसे-वैसे चेतना बदली है, विचार और मूल्य बदले हैं । इन सारे परिवर्तित मूल्यों के सन्दर्भ में हम नैतिक विकास की चर्चा करें तो प्रासंगिक बात होगी।
नैतिकता का प्रश्न बहुत उलझा हुआ है। सामाजिक चेतना का प्रश्न इतना जटिल नहीं है और आध्यात्मिक चेतना का प्रश्न भी इतना उलझा हुआ नहीं है किन्तु नैतिकता का प्रश्न अत्यन्त उलझा हुआ है क्योंकि इसके साथ अनेक संदर्भ जुड़े हुए हैं। राजनीति का संदर्भ है, कानूनों का संदर्भ है, अदालतों का संदर्भ है और पारस्परिक व्यवहारों का संदर्भ है। इन सारे संदर्भो के कारण नैतिकता की गुत्थी उलझी हुई है।
इसके विषय में हम क्या सोचें ? कैसे सोचें ? सबसे अच्छा तो यह है कि इस प्रश्न को हम व्यक्ति को स्वतंत्र चेतना पर छोड़ दें। उसको जो व्यवहार अच्छा लगे, उसे हम नैतिकता मान लें। किन्तु इसमें भी अनेक समस्याएं हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो अपने हर काम को अच्छा प्रमाणित करने का तर्क उपस्थित करते हैं। इस स्थिति में हम एक मानदंड बनाकर चलें। वह मानदण्ड यह हो-नैतिक चेतना वह है, जो व्यक्ति को उठाने वाली हो, गिराने वाली न हो।
गामा पहलवान बनारस आया। मालवीयजी ने उसका सम्मान हिन्दू विश्वविद्यालय में करते हुए विद्यार्थियों से कहा-विद्याथियो ! तुम सबको गामा पहलवान जैसा बनना है। इतने में ही गामा बीच में बोल पड़ाविद्यार्थियो ! गामा नहीं, तुम सबको मालवीयजी बनना है । गामा दूसरों को पछाड़ता है। मालवीयजी दूसरों को उठाते हैं। तुम सबको मालवीय बनना
चेतना का विकास ऐसा हो कि वह पछाड़ने वाली चेतना न हो, उठाने वाली चेतना हो। उठाने वाली चेतना का पहला सूत्र है-प्रामाणिक व्यवहार ।
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