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________________ नैतिकता की आधारशिला : काम परिष्कार आज अनैतिक आचरण को मिटाने के लिए प्रयत्न हो रहे हैं। शासन और समाज-दोनों इसमें लगे हुए हैं । दंड शक्ति को काम में लिया जा रहा है। नए-नए कानून बन रहे हैं। प्रश्न होता है---यदि काम अपरिष्कृत बना रहेगा तो अर्थ-शुद्धि घटित हो सकेगी? ऐसा होना संभव नहीं है । रोग कहीं है और दवाई किसी को दी जा रही है। बीमारी कहीं और दवा कहीं ! बीमारी तो है काम अशुद्धि की और प्रयत्न हो रहा है अर्थ-शुद्धि का । कितना विपर्यास । यह विपर्यास इसलिए चलता है कि हम सचाई का अनुभव नहीं करते, सचाई की दिशा में प्रस्थान नहीं करते। जब तक आदमी सचाई की दिशा में प्रस्थित नहीं होगा, जब तक वह धर्म की खोज में नहीं चलेगा, तब तक वह मूल भूल को नहीं पकड़ पाएगा । जब तक मूल पकड़ में नहीं आएगा, तब तक फूल और पत्तों को तोड़ने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। पतझड़ का होना और वसन्त का आना-यह नियति का चक्र है, स्वाभाविक क्रम है। हम मूल को पकड़ें। अर्थ-शुद्धि द्वयं है। प्रथम है काम-शुद्धि । अर्थ शुद्धि के अनेक प्रयत्न हैं। इतना नियंत्रण है, टेक्स है कि अमुक धनराशि से अधिक पास में न रखी जाए। ये अर्थ-शुद्धि के प्रयत्न, समाजवाद और अर्थ-विभाजन के प्रयत्न, गरीबी और अमीरी को मिटाने के प्रयत्न-ये सारे प्रयत्ल इसीलिए अर्थहीन हो रहे हैं क्योंकि इनके साथ धर्म का योग नहीं है। धर्म के बिना काम का परिष्कार नहीं होता कौर काम के परिष्कार के बिना अर्थ का परिष्कार नहीं हो सकता । केवल अर्थ-शुद्धि घटित करने का अर्थ है--हम परिणाम को मिटाना चाहते हैं, कारण को मिटाना नहीं चाहते। यह एक भयंकर दार्शनिक भूल है । हम प्रवृत्ति को मिटाना नहीं चाहते, परिणाम को मिटाना चाहते हैं। हम परिणाम का शोधन करना चाहते हैं पर प्रवृत्ति के शोधन की बात नहीं सोचते । प्रवृत्ति है तो परिणाम होगा ही। केवल परिणाम का शोधन हो नहीं सकता। धर्म एक खोज है प्रवृत्ति के शोधन की, काम के परिष्कार की। इसमें इस बात पर बल नहीं दिया गया कि अर्थ का अर्जन अधिक मत करो, इस बात पर अधिक बल दिया गया कि कामना का परिष्कार करो, साधन-शुद्धि को ध्यान में रखो । महावीर ने परिग्रह की परिभाषा करते हुए कहा-~-मूर्छा परिग्रह है। उन्होंने यह नहीं कहा---धन परिग्रह है । मूल परिग्रह है काम, कामना । अर्थ दूसरे नम्बर में परिग्रह बनता है। कपड़ा, रोटी और मकान परिग्रह बनते हैं, पर ये मूल परिग्रह नहीं हैं । कपड़ा, मकान और रोटी परमाणु हैं, परमाणुओं के पिण्ड हैं, वे बेचारे क्या परिग्रह बनेंगे ! परमाणु हमारा न कुछ बिगाड़ता है और न कुछ भला करता है। परमाणु परमाणु है। चैतन्य चैतन्य है । वह परिग्रह नहीं बनता । परिग्रह बनता है काम । कहना यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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