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________________ सामाजिक चेतना १५६ ही तो काम कर रही है इसीलिए वह उसे बनाए रखना चाहता है। उसे पदार्थ की चिन्ता है, और किसी की चिन्ता नहीं है। ___ कानपुर की बात है। एक व्यक्ति आचार्य तुलसी के पास आकर बोला-आचार्य जी ! मैं जीवन में एक महत्त्वपूर्ण काम करना चाहता हूं। वह यह है कि गीता संसार का महानतम ग्रन्थ है । आज युद्ध की विभीषिका चारों ओर मंडरा रही है। उस प्रलयंकारी युद्ध में सब कुछ नष्ट हो जाएगा। मैं गीता के पांच दस ग्रन्थ एक लोहे की पेटी में सुरक्षित रखकर जमीन में गाड़ देना चाहता हूं ताकि वह हजारों वर्षों तक सुरक्षित रह सके । आचार्यश्री बोले-आपकी भावना सुन्दर है पर एक बात समझ में नहीं आ रही है कि ग्रन्थ तो सुरक्षित रह जाएगा परन्तु उसको पढ़ेगा कौन ? आदमी तो सारे मारे जायेंगे, फिर अध्ययन कौन करेगा? प्रश्न आदमी का है, चेतना का है। आज आदमी पदार्थ की चेतना में इतना उलझ गया है कि उसे पदार्थ ही पदार्थ दीख रहे हैं । इस स्थिति में लकीर से कुछ हटकर चिन्तन करना होगा, जिससे संग्रह के स्थान पर संविभाग का मूल्य बढ़े। सामाजिक चेतना के जागरण के दो परिणाम हैं । पहला है--वैचारिक आग्रह मिटे, सामंजस्य बढ़े। दूसरा है--वस्तु-संग्रह कम हो और संविभाग की चेतना जागे । आग्रह और संग्रह का परिणाम होता है--विग्रह । सामंजस्य और संविभग्ग का परिणाम होता है---उपग्रह। उपग्रह बहुत महत्त्वपूर्ण शब्द है। आचार्य उमास्वाति ने एक सुन्दर सूत्र रचा--'परस्परोपग्रहो जीवानाम्'-जीवों का संबंध है-परस्पर आलंबन देना, उपकार करना, सहारा देना । यह सामाजिक चेतना का एक घटक सूत्र है । एक प्राणी दूसरे प्राणी का उपग्रह करता है। यह स्वाभाविक है। आदमी प्रात: घूमने जाता है । बगीचों में भ्रमण करता है । वृक्ष उस समय आक्सीजन छोड़ते हैं, उससे आदमी उपगृहीत होता है और आदमी कार्बन छोड़ता है, उससे वृक्ष उपगृहीत होते हैं । दोनों ने दोनों का परस्पर उपकार कर दिया। एक आदमी दूसरे आदमी का, एक प्राणी दूसरे प्राणी का उपकार कर रहा है। यह प्राकृतिक जगत् में चल रहा है । यह प्राणियों की स्वाभाविक प्रक्रिया है-एक प्राणी दूसरे प्राणी के सहारे जीता है किन्तु सामाजिक जीवन में जब सामाजिक चेतना का अभाव होता है तब इस सार्वभौम या प्राकृतिक नियम का अतिक्रमण होता है और विग्रह पैदा हो जाता है । यदि अतिक्रमण न हो तो परस्पर उपग्रह की बात समझ में आ जाती है। जब चेतना बदल जाती है, तब उपग्रह की बात सामने आती है। चेतना बदल जाती है तब किसी को गाली देने, कोसने की बात सामने नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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