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________________ सामाजिक चेतना अनेक समस्याएं उभरती हैं। जहां सामाजिक जीवन है, वहां यदि कोई भी व्यक्ति वैयक्तिक चेतना की बात सोचता है तो वह समाज के प्रति बड़ी गद्दारी है। वह समाज के साथ अन्याय करता है । वह सामूहिक जीवन को नकारता है । विचार का सामंजस्य तब हो सकता है जब सामाजिक चेतना का विकास हो जाता है। वस्तु का संविभाग तब हो सकता है, जब' सामाजिक चेतना का विकास होता है। संविभाग का अर्थ है--किसी पदार्थ या संपदा पर किसी एक व्यक्ति का स्वामित्व नहीं होता । संपत्ति सामाजिक होती है। कुछ बातें वैयक्तिक होती हैं और उनकी चर्चा अध्यात्म के क्षेत्र में भी हो सकती है। समाज का क्षेत्र अध्यात्म के क्षेत्र से भी भिन्न है। समाज के क्षेत्र में किसी वस्तु पर व्यक्ति का अधिकार नहीं हो सकता। ईशावास्योपनिषद् में एक सूत्र है-किसी वस्तु का भोग करो तो उसे अपनी मानकर मत करो किन्तु ईश्वर के लिए समर्पण कर प्रसाद के रूप में उसे स्वीकार करो। उदयपुर की परम्परा रही है कि महाराणा दीवान होते हैं, राजा नहीं होते । वहां एकलिंगजी का राज होता है और महाराणा दीवान होते हैं । पुरानी बात है । उदयपुर के महाराणा भीमसिंहजी ने आचार्य भारमलजी को एक' 'रुक्का' लिखा था। उसमें उन्होंने लिखा-'एकलिंगजी रो राज छ, इसलिए आप पधारोगा' यह सिद्धांत बहुत महत्त्वपूर्ण है । यह सामाजिक चेतना का सिद्धांत है। 'हम लोग तो केवल काम करने वाले हैं, राज्य तो ईश्वरीय है, समाज का है, ब्रह्म का है, किसी का कह दो, वह व्यापक सत्ता है । यह सामाजिक चेतना का संवाहक है। यदि यह कथन क्रियान्वित होता है तो समाज का पूरा ढांचा ही बदल जाता है। फिर व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं और स्वार्थों के पोषण का अवसर नहीं मिलता। स्वार्थ और महत्त्वाकांक्षा-- ये दो तत्त्व सामाजिक चेतना के विकास में बाधक हैं। यहां भी प्रश्न होता है कि जिन राष्ट्रों में समाजवाद या साम्यवाद जैसी अवधारणाएं हैं, वहां भी व्यक्तिगत स्वार्थ की बात छूट नहीं रही है । यह प्रमाणित हो चुका है कि दंडव्यवस्था के बल पर इन भावनाओं को बदलना शक्य नहीं है । यदि हृदयपरिवर्तन किया जाए और शिक्षा के माध्यम से ऐसे संस्कार दिए जाएं, प्रारंभ से ही व्यक्तिगत स्वार्थ की भावना ही समाप्त हो जाए तो कुछ परिवर्तन आ सकता है । अन्यथा जब-जब स्वार्थ की भावना प्रबल होती है, तब तब वैयक्तिक चेतना जाग जाती है और समाज के हित-अहित का प्रश्न समाप्त हो जाता है । इस भावना को स्पष्ट करने के लिए आचार्य भिक्षु ने एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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