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सामाजिक चेतना
आज सबसे बड़ी समस्या है कि आदमी बदल नहीं रहा है। बदलने के प्रयत्न चल रहे हैं, फिर भी बदल नहीं रहा है। इसका कारण स्पष्ट है कि जितने भी प्रयत्न चल रहे हैं । वे सारे परिस्थिति को बदलने के अधिक चल रहे हैं, आदमी को बदलने के क्रम चल रहे हैं। परिस्थिति का निर्माता आदमी है। परिस्थिति आदमी के निर्माण में निमित्त बन सकती है पर वह निर्मात्री नहीं है । यदि वह दृष्टि स्पष्ट हो जाए तो परिवर्तन की दिशा बदल सकती हैं । समाज का संदर्भ छोड़ दिया जाए तो विकास की परिभाषा ही नहीं बनती, भाषा ही नहीं बनती । भाषा समाज को बांधती है। उसका विकास समाज में ही होता है । समाज के सम्पर्क का सबसे बड़ा सूत्र है-भाषा । उसी से समाज प्रारम्भ होता हैं । यदि भाषा न हो तो चिन्तन नहीं हो सकता । भाषा और चिन्तन-ये दो न हों तो समाज की कोई व्याख्या नहीं की जा सकती। उसका कोई अस्तित्व ही नहीं बनता। आदमी अकेला ही बना रहता है।
समाचार पत्र में पढ़ा कि कुछ वैज्ञानिकों ने यह खोजकर यह निष्कर्ष निकाला है कि बत्तख और मुर्गी के अण्डे परस्पर बात करते हैं। जो अंडे बात करते हैं, वे अपनी खौल जल्दी छोड़कर जल्दी बाहर आ जाते हैं और जो बात नहीं करते, उन अण्डों के खोल से निकलने का समय लम्बा होता है। वैज्ञानिकों ने उन अंडों की ध्वनियों को रेकार्ड किया है, सुना है और इस अनुमान पर पहुंचे हैं कि वे अंडे आपस में यही बात करते हैं कि कब जल्दी से इस खोल के बाहर निकलें।
अन्डे भी बात करते हैं, बतियाते हैं क्योंकि उनका भी अपना समाज होता हैं । जहां एक से दो हो जाते हैं, वहां बात प्रारम्भ हो जाती है, भाषा शुरू हो जाती है और समाज बन जाता है।
भाषा सामाजिक अस्तित्व का पहला सूत्र है। इसके बाद चिन्तन चलता है और समाज आगे बढ़ जाता है। समाज में जीने वाला व्यक्ति, समाज में अपनी असलियत प्रकट करने वाला व्यक्ति यदि सामाजिक चेतना की बात नहीं सोचता, उसका रूपान्तर नहीं करता, यह सबसे बड़ी समस्या बन जाती है । यह चिन्तनीय पहलू हैं।
__ शिक्षा का काम है--संस्कार का निर्माण। चाहे प्रेक्षा ध्यान की शिक्षा हो, चाहे विद्यालय की शिक्षा हो या अन्य कोई शिक्षा हो, सबका एकमात्र उद्देश्य है-चेतना का रूपान्तर करना । चेतना वैसी की वैसी बनी
माता हा
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