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________________ १२४ अवचेतन मन से संपर्क करना है। यह द्विस्तरीय चक्रव्यूह चित्त की चंचलता के लिए घेराव बन जाता महर्षि पंतजलि ने अष्टांग योग का विधान किया। उन्होंने यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि बताए। उन्होंने आसन का विधान इसलिए किया कि आसन के द्वारा नाड़ी-संस्थान पर नियंत्रण स्थापित किया जा सके । प्राणायाम के द्वारा नाड़ी-संस्थान पर नियन्त्रण स्थापित किया जा सके । एक भाई ने पूछा-त्याग करते हैं तब संवर होता है । संवर धर्म है । समता की साधना धर्म है। किन्तु सांस को देखना कौनसा धर्म है ! प्रश्न ठीक है, क्योंकि यह संस्कार जमा हुआ है कि त्याग करना धर्म है और सांस को देखना धर्म जैसा नहीं है। मैंने कहा-क्या चित्त की चंचलता को मिटाना धर्म नहीं है ? उसने कहा--धर्म है। क्या चित्त की चंचलता को मिटाने के लिए नाड़ी-संस्थान पर नियंत्रण करना धर्म नहीं है ? यह भी धर्म है। श्वास प्रेक्षा के द्वारा नाड़ी-संस्थान पर नियन्त्रण होता है, क्या वह धर्म नहीं है ? समझ गया, वह भी धर्म है। श्वास-दर्शन से नाड़ी-संस्थान पर नियंत्रण होता है और नाड़ी-संस्थान पर नियन्त्रण होने से चित्त की चंचलता पर नियन्त्रण होता है। हम आग में सीधा हाथ डालना चाहते हैं । बड़ी कठिनाई की बात है । लोग सांप को पकड़ते हैं तो मुंह से नहीं पकड़ते, पूंछ से पकड़ते हैं। पूंछ भी सांप है और मुंह भी सांप है। पर सांप मुंह की ओर से पकड़ने का प्रयत्न नहीं करते । पूंछ पकड़ने में खतरा नहीं है, मुंह पकड़ने में खतरा ही खतरा है। कोरे चित्त को पकड़ने का प्रयत्न सांप को मुंह की ओर से पकड़ने के प्रयत्न जैसा है । यह बहुत खतरनाक भी बन जाता है। उसे पकड़ा जाए नाड़ीसंस्थान के माध्यम से। इस दृष्टि से हमारे समक्ष मुख्य प्रश्न है कि नाड़ी-संस्थान पर नियंत्रण कैसे किया जाए ? पूरा शरीर, जिसमें जीवन प्रतीत होता है, यह केवल नाड़ीसंस्थान ही है । जीवन की अनुभूति नाड़ी-संस्थान के माध्यम से होती है। मस्तिष्क और सुषुम्ना-ये दो महत्त्वपूर्ण अंग है नाड़ी-संस्थान के । यहां नाड़ियों के बड़े स्तबक हैं । मस्तिष्क मुख्य केन्द्र है तो सुषुम्ना भी कम नहीं है। यह पीठ के पूरे भाग में फैली हुई है और मस्तिष्क में जाकर मिलती है। सुषुम्ना यहां समाप्त होती है। सुषुम्ना-शीर्ष आधे मस्तिष्क में मिलता है और उसी को ज्ञान केन्द्र कहते हैं। मस्तिष्क और सुषुम्ना का मिलन बिन्दु है ज्ञानकेन्द्र । साधना के क्षेत्र में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है । सुषुम्ना से ही सारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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