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________________ १२२ अवचेतन मन से संपर्क पहुंचाना और मस्तिष्क में जो प्रतिक्रिया हो, उसे क्रियान्वित करना । ज्ञानवाही तन्तु बाहरी संदेशों को भीतर तक पहुंचाते हैं और कार्यवाही तन्तु भीतर से आने वाले निर्देशों को क्रियान्वित करते हैं। इस पर प्रकार बाहरी जगत् के साथ संपर्क स्थापित करने वाले दो सूत्र हैं--१. ज्ञानवाही तंतु और २. उनके सहयोगी या पूरक कार्यवाही तंतु। चित्त में जो चंचलता उत्पन्न हो रही है, उसका शारीरिक कारण है-नाड़ी-संस्थान । नाड़ी-संस्थान चित्त को चंचल बना रहा है और चित्त की चंचलता नाड़ी-संस्थान को चंचल बना रही है। दोनों का पारस्परिक समझौता है । दोनों साथ-साथ चल रहे हैं । चित्त की चंचलता न हो तो नाड़ीसंस्थान की चंचलता कम हो जाएगी और नाड़ी-संस्थान की चंचलता न हो तो चित्त की चंचलता भी नहीं रहेगी। दोनों साथ-साथ चलते हैं। जब-जब हम चंचलता को समाप्त करने का चिंतन करते हैं तब-तब सीधा चित्त को पकड़ना चाहते हैं। किसी अमूर्त या सूक्ष्म को पकड़ना हमारे लिए कठिन कार्य है । हम इसे जानते हैं, पर प्रयत्न सीधा उसी को पकड़ने का करते हैं । सीधा उपाय यही है कि हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर चलें। पहले स्थूल को पकड़ा जाए, फिर सूक्ष्म को पकड़ें। तब तो कुछ पकड़ में आ सकता है, किन्तु पहले ही यदि हम सूक्ष्म को पकड़ने का प्रयत्न करते हैं तो कुछ भी पकड़ में नहीं आ सकता। योग के आचार्यों ने सबसे पहले ध्यान का प्रतिपादन नहीं किया। जैन आचार्यों ने सबसे पहले आहार-संयम का सूत्र दिया, कायोत्सर्ग और इन्द्रिय संयम का सूत्र दिया, विनम्रता और प्रायश्चित्त का सूत्र दिया, अनुप्रेक्षा और जप का सूत्र दिया । इतना सब कुछ हो जाने पर ध्यान का प्रतिपादन किया । हम सबसे पहले चित्त को पकड़ने का प्रयत्न न करें। पहले हम शरीर को पकड़ें, साधे । शरीर की चंचलता यानी-नाड़ी-संस्थान की चंचलता पर नियंत्रण स्थापित करें। उस पर नियन्त्रण होगा तो चित्त पर अपने आप नियन्त्रण होगा, चित्त की चंचलता स्वयं कम होगी। हम सीधा चित्त को पकड़ना चाहते हैं । यह बात सुनने में भी अच्छी लगती है । यह कभी संभव नहीं है । भीतर के संस्कार या प्रवृत्ति काम कर रही है, संज्ञाएं काम कर रही हैं और बाहर में नाड़ी-संस्थान काम कर रहा है, इस प्रकार दोनों चंचलताओं से घिरा हुआ यह चित्त क्या कभी स्थिर बन सकता है ? निर्विकल्प बन सकता है ? यदि वह निर्विकल्प बन गया तो फिर जीवन-यात्रा चलेगी ही नहीं। हमारी सारी जीवन-यात्रा विकल्पों के आधार पर चलती है । यदि विकल्प न हों तो जीवन-यात्रा समाप्त हो जाएगी । संस्कार जीवन को चला रहे हैं। वृत्तियां और संज्ञाएं जीवन को चला रही हैं । निर्विकल्प का अर्थ होता है-सारी संज्ञाओं और वृत्तियों का समाप्त हो जाना, क्षीण हो जाना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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