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यथार्थवादी दृष्टिकोण
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वह गहराई में चला गया। उसने सोचा- 'सचमुच, संन्यासी मुझे ठीक कह रहा है । मैंने गलत किया । पहले मुझे सोचना चाहिए था कि संन्यासी मुझे भलाबुरा क्यों कह रहा है ! मैंने सोचा नहीं और क्रोध में आविष्ट हो गया ।' सम्राट् अनुताप करने लगा । उसने नम्रता के साथ संन्यासी के चरण छुए । वह बोला -- महाराज ! क्षमा करें। मैं भान भूल गया था । मैंने अपराध किया है । सम्राट् के चेहरे पर शांति छा गई । जब उत्तेजना की तेजी के बाद शांति आती है तब वह और अच्छी होती है । उसके चेहरे पर सौजन्य का भाव झलकने लगा । विनय और श्रद्धा प्रगट हुई । संन्यासी ने तत्काल कहासम्राट् ! तुम स्वर्ग का साक्षात्कार करना चाहते थे । तुम्हारी वर्तमान की भावधारा, स्थिति साक्षात् स्वर्ग है ।' सम्राट् समझ गया ।
जिसे स्वर्ग और नरक का साक्षात्कार करना है, वह अपने व्यक्तित्व को देखे । उसमें दोनों प्राप्त हैं । जब व्यक्ति गहराई में उतरकर देखता हैमेरा व्यक्तित्व कैसा है, तब उसे सब कुछ ज्ञात हो जाता है । अपेक्षा है गहराई में जाने की, डुबकियां लेने की । यह बात प्रयोग के बिना संभव नहीं है । जिस व्यक्ति ने प्रयोग नहीं किया, अपने भीतर झांकने का प्रयत्न नहीं किया, केवल दो खिड़कियों (आंखों) को खुला रखा, भीतर देखने के लिए तीसरी खिड़की ( तीसरे नेत्र ) को खोला ही नहीं, वह इस सत्य को कभी नहीं पकड़ पाएगा । वह केवल शब्दों के जाल में उलझा रहेगा । उसकी उलझन कभी समाप्त ही नहीं होती ।
उर्दू के प्रसिद्ध शायर मिर्जा साहब लखनऊ गए । सभा हो रही थी । कुछ लोग दिल्ली से आए। सभा में हंगामा हो गया। मिर्जा साहब ने कहासब शांत रहें । सभा भंग क्यों करना चाहते हैं ? परिषद् से आवाज आई - 'हमारा एक विवाद है । जब तक वह विवाद नहीं मिटेगा तब तक सभा नहीं होने देंगे ।' मिर्जा साहब ने पूछा- क्या है 'हम निर्णय करना चाहते हैं कि रक्त शब्द पुल्लिंग है अथवा स्त्रीलिंग ? हम दिल्ली वाले रक्त को स्त्रीलिंग मानते हैं और लखनऊ वाले पुल्लिंग मानते हैं । पर वास्तव में वह है क्या, इसका निर्णय अभी होना चाहिए ।'
विवाद ? वे बोले
मिर्जा साहब बोले- बहुत छोटी बात है । जब स्त्रियां बैठी होती है तब रक्त स्त्रीलिंग होता है और जब पुरुष बैठे होते हैं तब रक्त पुल्लिंग होता है ।
हम शब्दों की दुनिया में जीते हैं । शब्दों का विवाद चलता ही रहना है । उसका कभी अन्त ही नहीं आता । जो व्यक्ति अनुभव में चला जाता है वह झगड़ा करता ही नहीं और जो अनुभव में नहीं जाता, वह कभी झगड़ा छोड़ता नहीं । जहां तर्क है वहां प्रतितर्क है। मान्यताओं और सिद्धान्तों की लड़ाइयां तर्क के आधार पर होती हैं । अनुभव के आधार पर कोई लड़ाई नहीं
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