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जैन परम्परा का इतिहास
दूसरे सब भेद मिट जाते हैं।
संस्कृत-साहित्य की समृद्धि के लिए किसने प्रयास किया या किसने नहीं किया-यह विचार कोई महत्त्व नहीं रखता। वाङ्मयसरिता सदा अभेद की भूमि में बहती है। फिर भी जैन, बौद्ध और वैदिक की त्रिपथ-गामिनी विचारधाराएं हैं। वे त्रिपथगा [गंगा] की तरह लम्बे अरसे तक बही हैं। ... प्राचीन वैदिकाचार्यों ने अपने सारभूत अनुभवों को वैदिक संस्कृत में रखा। जैनों ने अर्ध-मागधी भाषा और बौद्धों ने पालि भाषा के माध्यम से अपने विचार प्रस्तुत किए। इसके बाद में इन तीनों धर्मों के उत्तरवर्ती आचार्यों ने जो साहित्य बनाया, वह लौकिक [वर्तमान में प्रचलित] संस्कृत को पल्लवित करने वाला ही है।
लौकिक संस्कृत में लिखने के सम्बन्ध में किसने पहल की और कौन पीछे से लिखने लगा, यह प्रश्न हो सकता है किन्तु ग्रन्थ किसने कम रचे और किसने अधिक रचे-यह कहना कठिन है।
संस्कृत और प्राकृत-ये दोनों श्रेष्ठ भाषाएं हैं और ऋषियों की भाषाएं हैं। इस तरह आगम-प्रणेताओं ने संस्कृत प्राकृत की समकक्षता स्वीकार करके संस्कृत का अध्ययन करने के लिए जैनों का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
__ संस्कृत भाषा ताकिकों के तीखे तर्क-बाणों के लिए तूणीर बन चुकी थी। इसलिए इस भाषा का अध्ययन न करने वालों के लिए अपने विचारों की सुरक्षा खतरे में थी। अतः सभी दार्शनिक
संस्कृत भाषा को अपनाने के लिए तेजी से पहल करने लगे। - जैनाचार्य भी इस दौड़ में पीछे नहीं रहे । वे समय की गति को पहचानने वाले थे, इसलिए उनकी प्रतिभा इस और चमकी और स्वयं इस ओर मुड़े। उन्होंने पहले ही चरण में प्राकृत भाषा की तरह संस्कृत भाषा पर भी अधिकार जमा लिया। प्रादेशिक-साहित्य
ई० पूर्व पांचवीं शताब्दी में जैन धर्म का अस्तित्व दक्षिण भारत में था। ई० पूर्व तीसरी शताब्दी में भद्रबाहु बारह हजार मुनियों के साथ दक्षिण भारत में गए। सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य भी उनके साथ थे। उनके वहां जाने से धर्म बहुत प्रभावी हो गया।
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