________________
जैन परम्परा का इतिहास
व्याख्याता हुए । श्रीमद् भिक्षु स्वामी ने आगम के सैकड़ों दुरूह स्थलों पर प्रकीर्ण व्याख्याएं लिखी हैं । जयाचार्य ने आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध, ज्ञाता, प्रज्ञापना, उत्तराध्ययन [ २७ अध्ययन ] और भगवती सूत्र पर पद्यात्मक व्याख्या लिखी । उन्होंने आचारांग [ द्वितीय श्रुतस्कंध ] पर वार्तिक लिखा ।
८६
इस प्रकार जैन साहित्य आगम, आगम व्याख्या साहित्य और न्याय साहित्य से बहुत ही समृद्ध है । इनके आधार पर ही हम जैन दर्शन के हृदय को छूने का यत्न करेंगे ।
परवर्ती प्राकृत-साहित्य
आगम- लोप के पश्चात् दिगम्बर- परम्परा में जो साहित्य रचा गया, उसमें सर्वोपरि महत्त्व षट् खण्डागम और कषाय- प्राभृत का है ।
पूर्वों और अंगों के बचे-खुचे अंशों के लुप्त होने का प्रसंग आया तब आचार्य धरसेन [विक्रम की दूसरी शताब्दी ] ने भूतबलि और पुष्यदन्त नामक दो साधुओं को श्रुताभ्यास कराया। इन दोनों ने षट्खण्डागम की रचना की । लगभग इसी समय में आचार्य गुणधर हुए । उन्होंने कषाय- प्राभृत रचा। ये पूर्वों के शेषांश हैं । इसलिए इन्हें पूर्वो से उद्धृत माना जाता है । इन पर प्राचीन कई टीकाएं लिखी गई हैं । वे उपलब्ध नहीं हैं । जो टीका वर्तमान में उपलब्ध है, वह आचार्य वीरसेन की है । इन्होंने विक्रम सम्वत् ८७३ में षट्खण्डागम की ७२,००० श्लोक प्रमाण धवला टीका लिखी ।
कषाय- पाहुड़ पर २०,००० श्लोक - प्रमाण टीका लिखी । वह पूर्ण न हो सकी, बीच में ही उनका स्वर्गवास हो गया । उसे उन्हीं के शिष्य जिनसेनाचार्य ने पूर्ण किया। उसकी पूर्ति विक्रम सम्वत् ८६४ में हुई । उसका शेष भाग ४०,००० श्लोक - प्रमाण और लिखा गया । दोनों को मिलाकर इसका प्रमाण ६०,००० श्लोक होता है । इसका नाम जय धवला है । यह प्राकृत और संस्कृत के संक्रांति - काल की रचना है । इसलिए इसमें दोनों भाषाओं का मिश्रण है ।
षट् खण्ड का अंतिम भाग महाबंध है । इसके रचयिता आचार्य भूतबलि हैं । यह ४१,००० श्लोक - प्रमाण है । इन तीनों ग्रन्थों में कर्म का बहुत ही सूक्ष्म विवेचन है ।
विक्रम की दूसरी शती में आचार्य कुन्दकुन्द हुए । इन्होंने
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org