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________________ ८२ व्रण हो जाते हैं । ३. उनके छेदों की ठीक तरह' पडिलेहना' नहीं हो सकती । मार्ग में भार बढ़ जाता है । ४. ५. वे कुन्थु आदि जीवों के आश्रय होने के कारण अधिकरण 'हैं अथवा चोर आदि से चुराए जाने पर अधिकरण हो जाते हैं । ६. तीर्थंकरों ने पुस्तक नामक उपधि रखने की आज्ञा नहीं दी जैन परम्परा का इतिहास ७. उनके पास में होते हुए सूत्र - गुणन में प्रमाद होता हैआदि-आदि । साधु जितनी बार पुस्तकों को बांधते हैं, खोलते हैं और अक्षर लिखते हैं उन्हें उतने ही चतुर्लघुकों का दण्ड आता है और आज्ञालोप आदि दोष लगते हैं । आचार्यश्री भिक्षु के समय में भी ऐसी विचारधारा थी । उन्होंने इसका खण्डन भी किया है । अंग और उपांग तथा छेद और मूल दिगम्बर - साहित्य में आगमों के दो ही विभाग मिलते हैंअंग-प्रविष्ट और अंग - बाह्य । श्वेताम्बर परम्परा में भी मूल विभाग यही रहा । स्थानांग, नन्दी आदि में यही मिलता है । आगम- विच्छेद काल में पूर्वों और अंगों के निर्यूहण और शेषांश रहे, उन्हें पृथक् संज्ञाएं मिलीं । आगम-पुरुष 'की कल्पना हुई, तब अंग-प्रविष्ट को उसके अंगस्थानीय और बारह सूत्रों को उपांग-स्थानीय माना गया । पुरुष के जैसे दो पैर, दो जंघाएं, दो उरु, दो गात्रार्ध, दो बाहु, ग्रीवा और सिर-ये बारह अंग होते हैं, वैसे ही श्रुतपुरुष के आचार आदि बारह अंग होते हैं । इसलिए ये अंग-प्रविष्ट कहलाते हैं । कान, नाक, आंख, जंघा, हाथ और पैर ये उपांग हैं । श्रुतपुरुष के भी औपपातिक आदि बारह उपांग हैं । बारह अंगों और उनके उपांगों की व्यवस्था इस प्रकार है : अङ्ग आचार सूत्रकृत् स्थान समवाय Jain Education International उपांग औपपातिक राजप्रश्नीय जीवाभिगम प्रज्ञापना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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