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व्रण हो जाते हैं ।
३. उनके छेदों की ठीक तरह' पडिलेहना' नहीं हो सकती । मार्ग में भार बढ़ जाता है ।
४.
५. वे कुन्थु आदि जीवों के आश्रय होने के कारण अधिकरण 'हैं अथवा चोर आदि से चुराए जाने पर अधिकरण हो जाते हैं ।
६. तीर्थंकरों ने पुस्तक नामक उपधि रखने की आज्ञा नहीं दी
जैन परम्परा का इतिहास
७. उनके पास में होते हुए सूत्र - गुणन में प्रमाद होता हैआदि-आदि ।
साधु जितनी बार पुस्तकों को बांधते हैं, खोलते हैं और अक्षर लिखते हैं उन्हें उतने ही चतुर्लघुकों का दण्ड आता है और आज्ञालोप आदि दोष लगते हैं । आचार्यश्री भिक्षु के समय में भी ऐसी विचारधारा थी । उन्होंने इसका खण्डन भी किया है ।
अंग और उपांग तथा छेद और मूल
दिगम्बर - साहित्य में आगमों के दो ही विभाग मिलते हैंअंग-प्रविष्ट और अंग - बाह्य ।
श्वेताम्बर परम्परा में भी मूल विभाग यही रहा । स्थानांग, नन्दी आदि में यही मिलता है । आगम- विच्छेद काल में पूर्वों और अंगों के निर्यूहण और शेषांश रहे, उन्हें पृथक् संज्ञाएं मिलीं ।
आगम-पुरुष 'की कल्पना हुई, तब अंग-प्रविष्ट को उसके अंगस्थानीय और बारह सूत्रों को उपांग-स्थानीय माना गया । पुरुष के जैसे दो पैर, दो जंघाएं, दो उरु, दो गात्रार्ध, दो बाहु, ग्रीवा और सिर-ये बारह अंग होते हैं, वैसे ही श्रुतपुरुष के आचार आदि बारह अंग होते हैं । इसलिए ये अंग-प्रविष्ट कहलाते हैं ।
कान, नाक, आंख, जंघा, हाथ और पैर ये उपांग हैं । श्रुतपुरुष के भी औपपातिक आदि बारह उपांग हैं ।
बारह अंगों और उनके उपांगों की व्यवस्था इस प्रकार है :
अङ्ग
आचार
सूत्रकृत्
स्थान
समवाय
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उपांग
औपपातिक
राजप्रश्नीय
जीवाभिगम
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