________________
भगवान् महावीर की उत्तरवर्ती परम्परा सकता। दिगम्बर से श्वेताम्बर-शाखा का उद्भव हुआ, यह भी नहीं कहा जा सकता । प्रत्येक सम्प्रदाय अपने को मूल और दूसरे को अपनी शाखा बताता है । पर सच तो यह है कि साधना की दो शाखाएं, समन्वय और सहिष्णुता के विराट प्रकाण्ड का आश्रय लिए हुई थीं, वे उसका निर्वाह नहीं कर सकी, काल-परिपाक से पृथक हो गईं। अथवा यों कहा जा सकता है कि एक दिन साधना के दो बीजों ने समन्वय के महातरु को अंकुरित किया और एक दिन वही महातरु दो भागों में विभक्त हो गया। किंवदन्ती के अनुसार वीर-निर्वाण ६०६ वर्ष के पश्चात् दिगम्बर-सम्प्रदाय का जन्म हुआ, यह श्वेताम्बर मानते हैं और दिगम्बर-मान्यता के अनुसार वीर-निर्वाण ६०६ में श्वेताम्बर-सम्प्रदाय का प्रारम्भ हुआ। सचेलत्व और अचेलत्व का आग्रह और समन्वय-दृष्टि
जब तक जैन-शासन पर प्रभावशाली व्यक्तित्व का अनुशासन रहा, तब तक सचेलत्व और अचेलत्व का विवाद उग्र नहीं बना। कुन्दकुन्द के समय यह विवाद तीव्र हो उठा था। बीच-बीच में इसके समन्वय के प्रयत्न भी होते रहे हैं। यापनीयसंघ श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं का समन्वित रूप था। इस संघ के मुनि अचेलत्व आदि की दृष्टि से दिगम्बर-परंपरा का अनुसरण करते थे और मान्यता की दृष्टि से श्वेताम्बर थे। वे स्त्री-मुक्ति को मानते थे और श्वेताम्बर-सम्मत आगम-साहित्य का अध्ययन करते थे।
समन्वय की दृष्टि और भी समय-समय पर प्रस्फुटित होती रही है। कहा गया है
'कोई मुनि दो वस्त्र रखता है, कोई तीन, कोई एक और कोई अचेल रहता है। वे परस्पर एक-दूसरे की अवज्ञा न करें; क्योंकि यह सब जिनाज्ञा-सम्मत है। यह आचार-भेद शारीरिक शक्ति और धृति के उत्कर्ष और अपकर्ष के आधार पर होता है । इसलिए सचेल मुनि अचेल मूनियों की अवज्ञा न करें और अचेल मुनि सचेल मुनियों को अपने से हीन न मानें । जो मुनि महाव्रत धर्म का पालन करते हैं और उद्यत-विहारी हैं, वे सब जिनाज्ञा में हैं।' चैत्यवास परम्परा ___वीर-निर्वाण की नवीं शताब्दी [८५०] में चैत्यवास की स्थापना हुई। कुछ शिथिलाचारी मुनि उग्र-विहार छोड़कर मंदिरों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org