SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चिन्तन के विकास में जैन आचार्यों का योग के आधार पर चल रहा है। किन्तु आज कोई साधु नहीं है। प्राचीन काल में शरीर का संहनन उत्तम होता था, आज वैसा नहीं रहा। उत्तम संहनन वाले ध्यान के अधिकारी थे, अब कोइ ध्यान का अधिकारी नहीं है । ध्यान विछिन्न हो गया। प्राचीनकाल में जिनकल्प मुनि विशिष्ट साधना करते थे। अब जिनकल्पसाधना का भी विच्छेद हो गया। विशिष्ट प्रत्यक्षज्ञान और विशिष्ट यौगिक उपलब्धियां भी विच्छिन्न हो गईं। चिंतन की इस धारा ने विकास का द्वार अवरुद्ध कर दिया। मुनिजन यह मानकर चलने लगे कि इस दुषमाकाल में विशिष्ट साधना और विशिष्ट उपलब्धि नहीं हो सकती। इस धारणा का प्रभाव भी हुआ। साधना के पथ में अभिनव उन्मेष लाने को मनोवत्ति शिथिल हो गई। जब यह मान लिया जाता है कि आज विशिष्टता की उपलब्धि नहीं हो सकती, फिर उसके लिए प्रयत्न करने की स्फरणा भी नहीं रहती। कुछ मनीषी मुनियों का ध्यान इस हीनभावना की मनोवृत्ति और उसके फलितों पर गया। उन्होंने इसका प्रतिवाद किया। भाष्यकार संघदासगणी ने कहा - 'जो मुनि यह कहते हैं कि वर्तमान में साधुत्व नहीं है, उन्हें श्रमण-संघ से बहिष्कृत कर देना चाहिए। आचार्य रामसेन ने इसका सशक्त समर्थन किया कि वर्तमान में ध्यान हो सकता है। उसका विच्छेद नहीं हुआ है। कुछ विच्छित्तियों के बारे में किसी आचार्य ने कुछ नहीं कहा। यह बहुत ही विमर्शनीय है। विच्छेदों की चर्चा श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के आचार्यों ने की है । तुलनात्मक दृष्टि से श्वेताम्बर आचार्यों ने अधिक की है। दिगम्बर-परम्परा में ध्यान, कायोत्सर्ग और प्रतिमा के अभ्यास की परम्परा दीर्घकाल तक चली। दिगम्बर आचार्यों ने योग-विषयक ग्रन्थ रचे । श्वेताम्बर परम्परा में ध्यान का अभ्यास सुदूर अतीत में ही कम हो गया था। श्वेताम्बर आचार्यों में जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण, हरिभद्रसूरि, आचार्य हेमचंद्र, उपाध्याय यशोविजयजी आदि कुछेक विद्वान् ही योग ग्रन्थों के निर्माता हुए हैं। आचार्यश्री तुलसी ने योग पर 'मनोनुशासनम्' नाम का ग्रन्थ लिखा। उसके निर्माण की अवधि में उन्होंने कहा'यौगिक उपलब्धियों के विच्छेद की बात साधक के मन में पहले से ही न बिठाई जाती तो आज तक जैन परम्परा में योग का अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy