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जैन संस्कृति
११५ आवश्यक अंग मानते थे। प्रेम और सेवा को पूजा-पाठ से बढ़कर मानते थे । पशु-बलि का तीव्र विरोध करते थे। शारीरिक परिश्रम से ही जीवन-यापन करते थे । अपरिग्रह के सिद्धांत पर विश्वास करते थे । समस्त संपत्ति को समाज की संपत्ति समझते थे। मिस्र में इन्हीं तपस्वियों को 'थेरापूते' कहा जाता था। 'थेरापूते' का अर्थ 'मौनीअपरिग्रही' है।"
कालकाचार्य सुवर्णभूमि [सुमात्रा] में गए थे। उनके प्रशिष्य श्रमण सागर अपने गण सहित वहां पहले ही विद्यमान थे ।
कौंचद्वीप, सिंहलद्वीप [लंका] और हंसद्वीप में भगवान् सुमतिनाथ की पादुकाएं थीं। पारकर देश और कासहृद में भगवान् ऋषभदेव की प्रतिमा थी।
ऊपर के संक्षिप्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि जैन-धर्म का प्रसार हिन्दुस्तान के बाहर देशों में भी हुआ था। उत्तरवर्ती श्रमणों की उपेक्षा व अन्यान्य परिस्थितियों के कारण वह वहां स्थायी नहीं रह सका।
जैनों के कुछ विशिष्ट स्थल १. आबू
दक्षिणी राजस्थान के सिरोही जिले के अन्तर्गत आबू की रमणीय पहाड़ियां हैं। इसका प्राचीन नाम अर्बुद है।
आबू जैन मन्दिरों के लिए प्रख्यात है। उनमें दो प्रमुख हैं। भगवान् ऋषभ का मन्दिर सोलंकी नरेश के मन्त्री विमलशाह ने ईसवी सन् १०३२ में बनवाया। भगवान् नेमि के मन्दिर के निर्माता हैं वस्तुपाल और तेजपाल । ये दोनों सगे भाई थे। इनके पास अपार सम्पत्ति थी। इन्होंने पत्थर को उत्कीर्ण करने वाले कारीगरों को, पत्थर से निकलने वाले टुकड़ों के बराबर चांदी देकर उनका उत्साह बढ़ाया। कारीगर पत्थर में जीवन उंडेलने में तत्पर हुए और आज भी यह मन्दिर अपनी उत्कीर्ण-कला का उत्कृष्ट नमूना है। माना जाता है कि इसमें करोड़ों रुपये खर्च हुए। इसका निर्माण सन् १२३२ में हुआ। २. सम्मेद शिखर
यह बिहार के हजारीबाग जिले का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
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