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________________ ०८ जैन परम्परा का इतिहास सलिए उसने अपने पुत्र सम्प्रति के लिए ही सम्राट अशोक से राज्य मांगा था। गाल राजनीतिक दृष्टि से प्राचीन काल में बंगाल का भाग्य मगध के साथ जुड़ा हुआ था। नंदों और मौर्यों ने गंगा की उस निचली वाटी पर अपना स्वत्व बनाए रखा। कुषाणों के समय में बंगाल उनके शासन से बाहर रहा, परंतु गुप्तों ने उस पर अपना अधिकार फिर स्थापित किया । गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात् बंगाल में छोटेछोटे अनेक राज्य उठ खड़े हए। भगवान् महावीर वज्रभूमि [वीर भूमि] में गए थे। उस समय वह अनार्य-प्रदेश कहलाता था। उससे पूर्व बंगाल में भगवान् पार्श्व का ही धर्म प्रचलित था। वहां बौद्ध-धर्म का प्रचार जैन-धर्म के बाद में हुआ। वैदिक धर्म का प्रवेश तो वहां बहुत बाद में हुआ था। ई० स० १८६ में राजा आदिसूर ने नैतिक धर्म के प्रचार के लिए पांच ब्राह्मण निमंत्रित किए थे। भगवान् महावीर के सातवें पट्टधर श्री श्रुतकेवली भद्रबाहु पौण्ड्रवर्धन [उत्तरी बंगाल] के प्रमुख नगर कोट्टपुर के सोमशर्मा पुरोहित के पुत्र थे। उनके शिष्य स्थविर गोदास से गोदास-गण का प्रवर्तन हुआ। उसकी चार शाखाएं थीं तामलित्तिया, कोडिवरिसिया, पुण्डवद्धणिया [पोंडवद्धणिया], दासीखब्बडिया। तामलित्तिया का सम्बंध बंगाल की मुख्य राजधानी ताम्रलिप्ती से है। कोडिवरिसिया का संबंध राढ की राजधानी कोटिवर्ष से है। पोंडवद्धणिया का संबंध पौंड - उत्तरी बंगाल से है। दासीखब्बडिया का संबंध खरवट से है। इन चारों बंगाली शाखाओं से बंगाल में जन-धर्म के सार्वजनिक प्रसार की सम्यक् जानकारी मिलती है। उड़ीसा ई० पू० दूसरी शताब्दी में उड़ीसा में जैन-धर्म बहुत प्रभावशाली था। सम्राट् खारवेल का उदयगिरि पर्वत पर हाथीगंफा का शिलालेख इसका स्वयं प्रमाण है । लेख का प्रारंभ--'नमो अरहंतानं, नमो सव-सिधानं'-इस वाक्य से होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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