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साधुत्व की कसौटी ऐसा लगता है-जैन परंपरा में भी आज यह दरवाजा खुल रहा है, खुलना शुरू हो रहा है। अनेक जैन साधु रुपए-पैसे बटोरने में लगे हुए हैं। एक क्रम शुरू हुआ है-खुले आम पैसा इकट्ठा करना, बैंक-बैलेंस रखना, घर-घर जाकर रुपए मांगना। लगता है-कुछ संकोच रहा ही नहीं। मुनि यह नहीं सोच पा रहे हैं-मैं जैन मुनि हूं, समणोऽहं-समण हूं, अपरिग्रही और अकिञ्चन हूं, मुझे पैसे को छूना भी नहीं है। इस अवस्था में साधु के सामने एक कसौटी का होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है और उन कसौटियों को जानना एक श्रावक के लिए भी अनिवार्य हो गया है। ज्वलंत प्रश्न
एक श्रावक ने कहा-महाराज ! अमुक मुनि हमारे घर आए। उन्होंने रुपये मांगे। हमारी इच्छा तो नहीं थी रुपये देने की पर संकोचवश उनको कुछ रुपये दे दिए। उसके पास खड़े एक व्यक्ति ने कहा--यह तुमने अच्छा नहीं किया। तुम्हें यह कहना चाहिए था-यदि आप साधुवेश को छोड़ दें तो आपको सौ के स्थान पर हजार रुपये दे दूंगा। पर आप इस वेश में रुपये मांगकर साधुत्व को लज्जित न करें। ___ समस्या यह है-साधुत्व का वेश छोड़ दे तो रुपया न मिले और जैन साधु के वेश में रुपया मांगे, यह लज्जास्पद बात है। यह आज एक ज्वलंत प्रश्न बन रहा है। यदि इस पर श्रावक समाज ने ध्यान नहीं दिया तो शायद साधु समाज को डुबोने वाला कहलाएगा श्रावक समाज। इस संदर्भ में आचार्य भिक्षु का यह श्लोक कितना मार्मिक है
साध ने डुबोया श्रावका, श्रावकों ने डुबोया साध।
दोनूं डूबा बापड़ा, श्री जिन वयण विराध। यह चित्रण बहुत यथार्थ है। ऐसा लगता है-आज फिर एक बार आचार्य भिक्षु के जन्म लेने की जरूरत है। ऐसा कोई साहसी, अभय और सत्य का प्रवक्ता उभरे, जो साधु समाज को पतन से बचा सके। इसके लिए सगुण भाषा का प्रयोग भी करना पड़े तो करना चाहिए। सगुण भाषा
प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक डाक्टर राममनोहर लोहिया आचार्यवर की सन्निधि में आए। उन्होंने मेरे साथ लंबे समय तक वार्तालाप किया। डा. लोहिया ने आचार्यवर से प्रार्थना की आप मुनि नथमलजी (युवाचार्य महाप्रज्ञ) को भिक्षा के लिए मेरे घर भेजिए। मैं डा. लोहिया के घर गया। अनेक संत और श्रावक साथ थे। हम उनके घर थोड़ी देर रुके। बातचीत चल पड़ी। मैंने कहा-डा. साहब ! आपकी काफी बातें
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