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________________ दो परंपराओं के बीच सीधा संवाद पिता-पुत्र के बीच ही नहीं, दो परम्पराओं के बीच था । पिता वैदिक धर्म से प्रभावित थे और पुत्र श्रमण परम्परा से संवाद में वे अपनी-अपनी परम्पराओं का प्रतिनिधित्व कर रहे थे । राजपुरोहित भृगु ने कहा- 'तुम ब्राह्मण कुल में पैदा हुए हो इसलिए वेदों को पढ़ो।' पुत्र बोले--पिताजी ! आप जानते है - निर्वाणवादी के लिए वेद त्राण का कारण नहीं होते।' ५६ वेदों का बड़ा महत्त्व है। वह बहुत बड़ी ज्ञान राशि है । आज भी भारतीय साहित्य में वेद को प्राचीन साहित्य माना जाता है। गीता में कहा गया है-- वेदों में तीन गुणों का वर्णन मिल जाएगा। समाज के महत्त्वपूर्ण सूत्र उसमें उपलब्ध हैं। राष्ट्र की व्यवस्था के सूत्र भी उसमें हैं। विज्ञान के बहुत से संकेत सूत्र हैं किन्तु निर्वाण की बात वेद नहीं बता सकते। भृगुपुत्रों ने कहा--'हम दोनों भाई निर्वाण चाहते हैं । वे हमारे क्या काम आएंगे? वेद पढ़ना हमारे लिए सार्थक नहीं होगा ।' मौन सम्मति बन गया भृगुपुत्रों ने अपने पिता की बातों से असहमति व्यक्त करते हुए कहा - 'आप कहते हैं-- ब्राह्मण भोज करो। ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा दो । भोग भोगो, संतान पैदा करो। ये सारी बातें अन्धकार की ओर ले जाने वाली हैं, बन्धन का हेतु हैं। हम उस मार्ग पर बढ़ना चाहते हैं, जो मोक्ष का हेतु है। यदि आप निर्वाण प्राप्ति में सहायक होने वाली कोई बात बताएं तो हम उसे मानने को तैयार हैं। आप हमें भोग भोगने की प्रेरणा दे रहे हैं। क्या आप नहीं जानते हैं-- भोग क्षणिक सुख देते हैं, बहुत काल तक दुःख देते हैं। क्या कोई पिता अपने पुत्र को ऐसा प्रलोभन दे सकता है, जिसमें सुख कम हो और दुःख अधिक। जो थोड़ा सुख देकर बहुत दुःख देने वाले हैं, उन काम - भोगों में हमें नहीं फंसना है । हमें उस निर्वाण के सुख को प्राप्त करना है, जो कभी दुःख में नहीं बदलता । शाश्वत सुख का स्थान है मोक्ष । हमारा लक्ष्य वही है । राजपुरोहित भृगु पुत्रों के तर्क सुनकर स्तब्ध रह गया। उसने सोचा- आज सारा चक्का उलटा घूम रहा है। मैं सोचता था-- मैं इनका पिता हूं और ये मेरे पुत्र हैं। पर आज ऐसा लग रहा है- ये मेरे पिता बन गए हैं और मैं इनका पुत्र । सचमुच चक्का घूम गया, भृगुपुत्रों को समझाने वाला पिता स्वयं समझ गया। वह निःशब्द हो गया । उसका मौन सम्मति बन गया -- मौनं सम्मति लक्षणम् और उनके बीच हुआ वार्तालाप बन गया -- दो परम्पराओ के बीच सीधा संवाद । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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