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चांदनी भीतर की
जीवन खुशियों से भर गया। समय बीतता गया। दोनों कुमार बड़े हुये। गुरुकुल षें पढ़ने लगे। उनकी बुद्धि भी तीक्ष्ण और पैनी थी। राजपुरोहित के मन में यह प्रश्न सदा बना रहता- कहीं कोई साधु इन्हें मिल न जाए। यदि साधु मिल गये तो क्या होगा? उसने सोचा- मुझे इनके मन में ऐसा संस्कार भर देना चाहिए, जिससे इनके मन में साधुओं के प्रति आस्था और आकर्षण का भाव जागे ही नहीं ? इस चिन्तन के साथ ही सत्य को झुठलाने का दूसरा प्रयत्न शुरू हो गया ।
दूसरा प्रयत्न
राजपुरोहित ने पुत्रों के कान में यह मंत्र फूंकना शुरू कर दिया- बेटे ! जो साधु होते हैं ना, उनका सदा ध्यान रखना। कभी उनके पास मत जाना।
लड़कों ने पूछा- पिताजी ! कैसे होते हैं ये साधु ?
'वे एक हाथ में झोली रखते हैं, पात्र रखते हैं। उनके कपड़े सफेद होते हैं। वे इधर-उधर घूमते रहते हैं, पर तुम उनसे सदा बचते रहना ।'
पिताजी ! 'उनके पास क्यों नहीं जाना चाहिए ?"
"बेटे ! तुम नहीं जानते, वे बालकों को उठाकर ले जाते हैं। अपने पात्रों में छुरी-कैंची रखते हैं। बच्चों का अपहरण कर उन्हें सताते हैं, मार डालते हैं। किसी का कान काट लेते हैं, किसी का नाक काट लेते हैं। तुम उनके पास भूल-चूक कर भी मत जाना।'
राजपुरोहित इस प्रकार की बातें समय-समय पर अपने लड़कों के कान में भरता रहा। उनके मन में साधुओं के प्रति घृणा के भाव भर दिए। बच्चों के कच्चे दिमाग में ये संस्कार गहरे जम गए। राजपुरोहित ने सोचा- इनके मन में साधुओं के प्रति जो भय बैठा है, उसे कोई नहीं निकाल सकता। यह सत्य को झुठलाने का दूसरा प्रयत्न था । प्रत्येक आदमी सत्य को झुठलाने का प्रयत्न करता है, राजपुरोहित उसका अपवाद कैसे रहता ?
मुनि का दर्शन
एक दिन की बात है। दोनों किशोर जंगल में घूमने चले गए। संयोग ऐसा मिला--उसी जंगल में दो तीन मुनि विहार करते हुये आ पहुंचे। दोनों भाइयों ने देखा - अरे ! ये तो वे साधु हैं ! पिताजी ने इनसे ही दूर रहने की सलाह दी थी । ओह ! ये तो सामने ही आ रहे हैं। कहां जाए ? हम दो हैं, ये तीन हैं। हम छोटे हैं,
ये
बहुत बड़े हैं। दोनों भय से आक्रान्त हो उठे ।
शरीरशास्त्री बतलाते हैं--भय की स्थिति में एड्रीनल का अतिरिक्त स्राव होने लग
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