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चांदनी भीतर की जाना है ? पता चल गया-मनुष्य लोक में जाना है। जब मनुष्य होने की बात आती है, देवता घबरा जाते हैं। अन्य गति में जाने से तो उससे भी अधिक घबराते हैं। दिव्य भूमि से मनुष्य लोक में जाना किसे पसन्द होगा ? ऐसी दिव्य भूमि है, जहां चारों ओर मनोहर वातावरण है, न प्रदूषण है, न गन्दी हवा है, न कोलाहल है, न रसोई बनाने का झंझट है, न चूल्हा फूंकना है, न खाने-पीने की चिन्ता है, न आजीविका की चिन्ता है। जो मनुष्य बनता है उसे सबसे पहले गर्भावास में रहना होता है। एक बंद थैली में नौ महीने तक रहना कितना दुःखद है। देवताओं का मन विषाद से भर गया। शांत, सुरम्य और पवित्र भूमि से ऐसी भूमि में आना कौन चाहेगा? कोई चाहे न चाहे, अपने कर्म के अनुसार उसे निर्धारित योनि में जाना ही होता है। प्रकृति के नियम को कैसे टाला जा सकता है ? पृथ्वी पर आए
देवताओं ने उस स्थान को देख लिया, जहां जाना था। दोनों देवता परस्पर परामर्श कर मनुष्य लोक में आए। साधु का वेश बनाया। ईषुकार नगर में राजपुरोहित के घर मिक्षा के लिए पहुंचे। राजपुरोहित का नाम था भृगु । उसकी पत्नी का नाम था यशा । मुनि को देखते ही दोनों के हाथ जुड़ गए। यह सहज है-जब मनुष्य त्यागी व्यक्ति को देखता है, उसका सिर नीचे झुक जाता है, हाथ जुड़ जाते हैं।
राजपुरोहित ने पूछा-महाराज ! कैसे पधारे ? ऐसे ही भिक्षा के लिए आ गये।
मुनि ने राजपुरोहित से कुछ बातचीत की। राजपुरोहित के मन में आर्कषण पैदा हो गया। मुनि की भव्य मुद्रा और तेजस्वी मुखमण्डल पुरोहित के हृदय में समा गया। राजपुरोहित ने कहा-महाराज ! कहिए क्या आदेश है ?
मुनि बोले-हमारा आदेश यही है कि तुम धार्मिक बनो। धर्म का जीवन जीओ।
मुनि ने राजपुरोहित को धर्म का स्वरूप और मर्म समझाया। राजपुरोहित प्रबुद्ध बन गया। उसे सम्यग् दर्शन हो गया। उसने श्रावक के व्रत स्वीकार कर लिए। जब दिव्य शक्ति का अवतरण होता है तब एक साथ विस्फोट हो जाता है। संतान की अभिलाषा : मुनि का कथन __ बातचीत के मध्य राजपुरोहित ने मुनि से पूछा-महाराज ! आप ज्ञानी हैं। आप बताइए--हमारे कोई संतान होगी ? अनेक वर्षों से हम संतान की कामना लिए हुए हैं। हमारी कामना कब पूरी होगी ?
यह संतान का प्रश्न आज के युग में भी बहुत उभरता है। आज परिवार नियोजन की बात भी प्रखर बन रही है पर उस समय संतान का प्रश्न बहुत जटिल
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