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________________ ३६ चांदनी भीतर की हमने अपने पूर्वजन्मों में क्या क्या भोगा है ? जब हम चाण्डाल थे तब हमारे साथ क्या-क्या बीता ? आज तुम गर्व कर रहे हो कि पूर्वकृत कर्म के कारण मुझे यह सब मिला है। चित्र का यह संबोधन सुनकर भी चक्रवर्ती की मूर्च्छा नहीं टूटी । मुनि चित्र ने उसकी मन:स्थिति को पढ़ा। उसने कहा- संभूत! मुझे लगता है-तुम वैराग्य को नहीं पा सकते। तुम साम्राज्य का मोह नहीं छोड़ सकते। तुम इसी साम्राज्य में रहते हुए भी मेरी एक बात मानो। तुम अनार्य कर्म मत करो। यदि मुनि नहीं बन सकते तो गृहस्थ रहते हुए भी धर्म में स्थित रहो, सब जीवों के प्रति अनुकंपा करो । जइ ता सि भोगे चइउं असतो, अज्जाई कम्माई करेहिं रायं ! धम्मे ठिओ सव्व पयाणुकम्पी, तो होहिसि देवो इओ विउव्वी ॥ आर्य कर्म का तात्पर्य यह कहा जाता है -- जैन धर्म में केवल अकर्म की बात है । निवृत्ति पर बल दिया गया है। इस संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण सूत्र मिलता है --जो विरक्त नहीं हो सकता, सारे भोगों को छोड़ नहीं सकता, वह आर्यकर्म तो करे । बौद्ध साहित्य में आर्यकर्म की बहुत अच्छी व्याख्या की गई है। आर्यकर्म का अर्थ है-- धर्म में स्थित रहना और सब जीवों के प्रति अनुकंपा करना । इसका तात्पर्य है - करुणा और संवेदनशीलता जाग जाए। जिसमें अनुकंपा का भाव है, वह मिलावट नहीं कर सकता। जिसमें अनुकंपा का भाव है, वह अप्रामाणिकता और भ्रष्टाचार नहीं कर सकता। जिसमें अनुकंपा है, वह दूसरे को धोखा नहीं दे सकेगा, लूट नहीं सकेगा। जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना है - अनुकंपा के भाव का जागना। यदि प्राणीमात्र के प्रति अनुकंपा का भाव जाग जाए तो हिंसा और अपराध की समस्या स्वतः कम हो जाए। जिस व्यक्ति की संवेदनशीलता प्रबल है, दूसरों के कष्ट से उसका हृदय द्रवित हो जाएगा। आर्यकर्म करने का संदेश सुनकर भी राजा प्रतिबुद्ध नहीं हुआ। मुनि ने यह जानकर वहां से विहार कर दिया। दो भाई मिलकर पुनः बिछुड़ गए। एक त्याग के पथ पर बढ़ गया और एक भोगों में पुनः लिप्त हो गया। यदि हम आर्यकर्म के मर्म की बात को समझ पाए तो यह प्रसंग एक नई दृष्टि और नया दर्शन देने वाला सिद्ध हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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