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चांदनी भीतर की
एक आदमी आत्मा को मानता है, पुनर्जन्म और पूर्वजन्म को मानता है किन्तु केवल वर्तमान की बात सोचता है। वह सोचता है - मैं इस जीवन में सुखी रहूं । भयभीत न रहूं। मेरे पास पर्याप्त धन-संपदा हो । सुख-सुविधा के साधन हो । वह रात-दिन इसी चिन्तन में लगा रहता है। ऐसा व्यक्ति चाहे आत्मवादी कहलाए, धार्मिक कहलाए, पर सही अर्थ में वह नास्तिक होता है। आस्तिक व्यक्ति का दृष्टिकोण होता है--मुझे अतीत के संस्कारों का परिष्कार करना है, निर्जरण करना है, वर्तमान में धर्म का जीवन जीना है और ऐसा काम करना है, जिससे भविष्य में दुर्गति न हो, भविष्य समुज्जवल बना रहे। जिस व्यक्ति के सामने अतीत, वर्तमान और भविष्य सदा प्रस्तुत रहता है, वह आस्तिक होता है । जिस व्यक्ति में यह चिन्तन नहीं होता, उसे आस्तिक कैसे कहा जाए ?
व्यक्ति की आकांक्षा
प्रत्येक व्यक्ति इष्ट को पाना चाहता है, अनिष्ट का निवारण चाहता है। इष्टसिद्धि और अनिष्ट निवारण - ये दोनों तत्त्व प्रत्येक व्यक्ति को काम्य रहे हैं। इष्टसिद्धि और अनिष्ट निवारण के लिए व्यक्ति धर्म भी करता है, कर्म भी करता है । इष्ट और अनिष्ट-दोनों अनेक प्रकार के होते हैं। जो प्रज्ञावान् हैं, उनकी दृष्टि में इष्ट का आध्यात्मिक रूप ही दोषरहित है, सम्यक् है ।
इष्टसिद्धिरनिष्टस्य निवारणमभीप्सितम् । तदर्थं कर्म धर्मोऽपि तदर्थं विद्यते नृणाम् ।। इष्टं नैकविधं तेषां, अनिष्टं चापि नैकथा । तेषामाध्यात्मिकं रूपं, निर्दोषं सम्मतं बुधैः ।
प्रत्येक व्यक्ति चाहता है-जीवन में अनिष्ट न आए, विघ्न न आए। व्यक्ति अतीत से बंधा हुआ है। उसने अतीत में न जाने क्या-क्या किया है। अतीत का प्रतिक्रमण किए बिना यह संभव नहीं है कि विघ्न न आए, बाधा न आए। यदि वर्तमान जीवन में संयम नहीं है, पवित्रता नहीं है तो भी विघ्न की संभावना को समाप्त नहीं किया जा सकता। अतीत का प्रतिक्रमण और वर्तमान की पवित्रता - ये दोनों बातें होती हैं। तो सुखद भविष्य की संभावना जन्म लेती है।
धर्म की दो धाराएं
धर्म की दो धाराएं रही हैं--प्रवृत्तिवादी धर्म और निवृत्तिवादी धर्म । प्रवर्तक धर्म का उद्देश्य था- स्वर्ग की प्राप्ति । मीमांसक दर्शन प्रवर्तक धर्म का अग्रणी दर्शन है। मीमांसक धर्म का मुख्य उद्देश्य स्वर्ग-प्राप्ति रहा । आत्मा या मोक्ष की अवधारणा का
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