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कर्मणा जातिः
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का नियोजन करे । इस कार्यविभाजन के आधार पर ही एक व्यक्ति ब्राह्मण बनता है, एक व्यक्ति क्षत्रिय बनता है, एक व्यक्ति वैश्य या शूद्र बनता है। जिसमें विद्या की शक्ति है, वह ब्राह्मण बनता है। जिसमें पौरुष की शक्ति है, वह क्षत्रिय बनेगा । जिसमें व्यावसायिक बुद्धि है, वह व्यापारी बनेगा। जिसमें सेवा करने की शक्ति है, वह सेवक बनेगा |
जन्म से नहीं, कर्म से
वैदिक विद्वानों द्वारा कर्म के आधार पर समाज को चार भागों में बांटा गया। ऋषभ ने समाज को तीन भागों में विभक्त किया। प्लेटो ने जिन तीन विभागों की कल्पना की है, वह जैन आचार्यों की कल्पना के काफी निकट है। असि-मसि कृषि के साथ बुद्धि, साहस और वासना की तुलना की जा सकती है। यह एक लचीला सिद्धान्त था, जिसका उद्देश्य था -- समाज की अपेक्षाएं पूरी हों और परिवर्तन भी न हो । जब जैन दर्शन और बौद्ध दर्शन का समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा तब जन्मना जाति की बात गौण हो गई, चारों ओर कर्मणा जाति का स्वर उभरा। गीता में भी कहा गया-चातुवर्ण्य मया सृष्टं, गुणकर्मविभागशः ।
व्यक्ति अपने गुण या कर्म से ब्राह्मण बनता है। ब्राह्मण जन्मना नहीं, कर्मणा होता है। केवल ॐ जपने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता । ब्रह्मविद्या को जानने वाला ब्राह्मण होता है। जैन और बौद्ध धर्म ने कर्मणा जाति का एक तीव्र आन्दोलन चलाया और उसका समाज पर व्यापक प्रभाव हुआ। भागवत पुराण और महाभारत में भी कहा गया- एक व्यक्ति एक जन्म में ब्राह्मण भी हो सकता है, वैश्य और क्षत्रिय भी हो सकता है, चाण्डाल भी हो सकता है।
समस्या का कारण
वैचारिक जगत् में यह धारणा हो गई--जाति जन्मना नहीं, कर्मणा होती है किन्तु आम जनता में जो जन्मना जाति का संस्कार डाल दिया गया, वह नहीं बदल पाया। इसी का परिणाम है-आज हिन्दुस्तान जाति और वर्णवाद की समस्याओं को झेल रहा है और उस पर बिखराव का खतरा मंडरा रहा है। आज मनुष्य में घृणा भरना जितना आसान है, प्रेम और मैत्री भरना उतना आसान नहीं है। कहा जाता है--मत की बात महीन | ऊंच-नीच की एक मान्यता या मत बन जाता है। उस मत या मान्यता को तोड़ पाना बहुत कठिन होता है किन्तु इन सारी मान्यताओं, धारणाओं, आग्रहों और अभिनिवेशों को तोड़ना आवश्यक है।
महावीर का क्रांत चिंतन
महावीर ने इन आग्रहों को तोड़ने के लिए जो कार्य किया, वह एक बहुत बड़ी
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